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द्वितीय खंड ।
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पुत्र, मित्र, गो, महिषादि चेतन पढार्थोंको तथा क्षेत्र, मकान, चादी, सोना आदि अचेतन पदार्थोंको अपना मानकर उनके लिये अति लालायित रहते हैं: ससार, शरीर, भोगोमें आशक्तवान होकर वैराग्य के कारणोंसे दूर भागते हैं वे इंद्रियोके सुखोंके लोलुपी पर समयरूप मिथ्यादृष्टी जानने ।
इसके विरुद्ध जो अपना अहकार और ममकार पर पदार्थोंसे हटाकर नित्य ही निज आत्माके स्वरूपके ज्ञाता होकर उस आत्माको स्वभावसे शुद्ध, ज्ञाता, दृष्टा, आनन्दमई, अमूर्तीक, अविनाशी सिद्ध भगवान के समान जानते हैं, अनेक घरोके समान अनेक पर्यायो अपने आत्माने भ्रमण किया है तौ भी वह स्वभावसे छुटा नही है ऐसा निश्चय रखते है, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागद्वेषादि भावकर्म तथा शरीरादि- नोकर्म ये सब ही मेरे शुद्ध आत्मस्वभावसे भिन्न है व मैं अपने स्वभावोका ही कर्ता तथा भोक्ता हूं, पर भावोका व पर पदार्थोंकी अवस्थाओंका न कर्ता हूं न भोक्ता हू ऐसा जो वास्तवमे तत्त्वको जानते है और अपने आत्मस्वभावके मननसे उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रिय आनन्दके रुचिवत होगए है, निनको यह जगत् कर्मका जाल स्वरूप व पाप पुण्य कर्मोके द्वारा परिणमन करता हुआ एक क्रीडा- घरके समान दिखता है, जो स्त्री, पुत्र, मित्रादिके सयोगको एक नौका पर कुछ कालके लिये एकत्रित पथिको सयोगके समान जानते है उनके मोहमें अज्ञानी होकर उनके लिये अन्याय व पर पीडाकारी कार्य नही करते हैं, जो गृहमें रहते हुए भी गृहकी पाशीमे नही फसते हैं, जो स्वतंत्रताको उपादेय जानते है और कर्मकी पराधीनतासे मुक्त होना चाहते हैं