Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 4
________________ प्राक्कथन न्यायशास्त्र मेरा आरम्भ से प्रिय विषय रहा है। बाल्यकाल से ही मेरे पूज्य पिताजी ने 'पर्वतो वह्निमान्, धूमवत्त्वात्' आदि व्याप्तियों का तथा प्रमाण और नय के भेद का ज्ञान खेल-खेल में ही सिखा दिया था। एक वो दिन थे और आज का दिन है, खेल-खेल में सीखी गयीं ये न्याय शास्त्र की शब्दावलियाँ कब मेरी रुचि, कार्य और अनुसन्धान का विषय बन गयीं, पता ही नहीं चला। जैन-न्याय के धुरन्धर विद्वान् पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य जी को देखने-सुनने का सौभाग्य तो मेरा नहीं रहा, किन्तु बाल्यावस्था में ही बनारस में जैन न्याय-परम्परा के अप्रितम मनीषी पं. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं. डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया, पं. अमृतलाल जी शास्त्री, प्रो. उदयचन्द जी जैन आदि विद्वानों की गोद में खेलने और इन गुरुजनों का सान्निध्य, स्नेह प्राप्ति का मुझे सौभाग्य प्राप्त रहा है। विद्वानों की यह पीढ़ी अब संसार में नहीं है, किन्तु आज जब इनके साहित्य का अध्ययन करता हूँ तो मुझे अपने सौभाग्य पर गौरव होता है कि मैं इनके वात्सल्य-स्नेह का अभिन्न पात्र रहा हूँ। जैन-न्याय के आरम्भिक शास्त्रों का अध्ययन मैंने जयपुर की जैन पाण्डित्य परम्परा से किया है। आदरणीय गुरुवर डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल जी, पं. अभयकुमार शास्त्री जी, पं. रतनचन्द भारिल्ल जी, प्राचार्य डॉ. शीतलचन्द जी जैन, प्राचार्य पं. शान्तिकुमार जी पाटील आदि विद्वानों के मुख से मुझे आप्तमीमांसा, परीक्षामुखसूत्र, न्यायदीपिका, प्रमेयरत्नमाला, आप्तमीमांसा तथा नयचक्र आदि ग्रन्थों को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं में मुझे समणी मंगलप्रज्ञा जी, समणी चैतन्यप्रज्ञा जी, समणी ऋजुप्रज्ञा जी तथा डॉ. अशोक कुमार

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