Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 12
________________ को गुणस्थानवर्ती बनाने के लिये इस क्रम को समझना नितान्त आवश्यक है। चतुर्थ गुणस्थान से आरम्भ होता है उत्क्रान्ति का क्रम । जब तक चतुर्थ गुणस्थानवर्ती स्थिति प्राप्त नहीं होती हैं तब तक विकास का कदम नहीं माना जाता। जड़ भावी शब्दों में गुणस्थानवर्ती वर्णन कर सकता है। किन्तु अनुभूति जन्य गुणस्थान का सन्स्पर्श भी नहीं होता। जड़शक्त जीव गुणाशक्त कभी नहीं बन सकता । चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त जीव हेय को हेय मानता है, जानता है और तद्नरूप आचरण भी करता है। उसी प्रकार ज्ञेय को ज्ञेय समझता है, मानता एवं आदरणीय स्वीकार करता है। जड़ासक्त जीव कषाय गस्त एवं ममत्वी बनता है दुराग्रही, कदाग्रही, मताग्रही बनकर गुणस्थान निरूपण, प्ररूपण करने में प्रबुद्ध प्रतित होता है किन्तु उस सब्जीगत चम्मच की भांति व्यंजन रस से मुक्त रहता है। शब्दांकन बुद्धि का खेल है किन्तु श्रुतावगाहन के साथ समाचरण की स्थति आत्मावगाहन की ओर प्रेरित कर उसमें अस्थि मज्जावत् उपस्थित करती है। क्रमशः गुणस्थान समारोहण आत्मा की परिणति को विशुद्धतम बनाते चतुर्थ गुणस्थान में चतुर्दश गुणस्थान को प्राप्त करने में सतत सहयोगी रूप बनती है। देशविरति, सर्वविरति स्थिति में चढते परिणाम जीव को आठवें गुणस्थान से श्रेणि में आरूढ़ करते हैं और दसवें से बारहवें गुणस्थानक में यदि मिथ्यात्वोदय प्रमत्त दशा प्रकट हो जाती है तो वह लौटकर यावत् प्रथम गुणस्थान को भी पहुंच जाती है यदि सम्हलता है तो अप्रमत्त स्थिति में रहने पर बारहवें तेरहवें एवं परिणाम निर्मलता से अन्तिम चौदहवें गुणस्थान का अधिकारी बनाकर अनन्त संसार का अंत करवा देते हैं। जीव को अनादि के बन्ध से निर्बन्ध एवं परिभ्रमण से मुक्त होकर शाश्वत शान्ति प्राप्त करता है। गहन गंभीर इस ज्ञान को प्राप्ति तद्भिमुख बने बिना सहज नहीं होती । तद्धेतु ज्ञानार्जन परम आवश्यक है। प्रस्तुत आलेखन तदर्थी जीवों के लिये निश्चित रूप से सहायक बन सकता है। इसकी आलेखिका है पीएच.डी. सम्मानित उपाधि से विभुषित विदुषी साध्वी श्री दर्शनकलाश्रीजी । ममाज्ञानुवर्तिनी श्रमणीवर्या की आलेखन शैली एवं विश्वभारती से स्वीकृत एक शोध ग्रन्थ का प्रकाशन अवश्य ही अभिनन्दनीय कार्य है। आत्मानु क्रान्ति के अभिलाषी जीव अध्ययन, मनन, चिन्तन करके स्वाभिमुखी बनने का प्रयास करेंगे तो इससे बहुत सारी उपलब्धी हो सकेगी। इस शोध ग्रन्थ को जिनवाणी की प्रमुखता आलेखित कर निश्चित ही साध्वीजी ने अपने गहन मंथन का परिचय दिया है। इतना श्रम एवं मंथन करने से अपने समय को सार्थक किया यह अभिनन्दनीय है ! धन्यवाद है ! भविष्य में भी अपनी लेखनी को विराम न देते हुये विभिन्न विषयों पर आलेखन करती रहें यही कामना । शुभम ! बैंगलोर मगसर वदि 13, 2062 Jain Education International - आचार्य जयन्तसेन सूरि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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