Book Title: Prakrit Hindi kosha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 13
________________ प्रस्तुत संस्करण के विषय में स्व० पं० हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ कृत पाइय-सद्द-महण्णवो का द्वितीय संस्करण आज से २३ वर्ष पूर्व ई० सं० १९६३ में छपा था और अनेक वर्षों से यह कोश उपलब्ध नहीं हो रहा था। इससे प्राकृत भाषा के विद्यार्थियों को कठिनाई अनुभव हो रही थी। इस कमी की पूर्ति के लिए हमारे सामने तीन विकल्प थे १. अद्यावधि प्रकाशित सभी नये प्राकृत ग्रन्थों की शब्दावली का समावेश __ करके एक संवर्धित संस्करण प्रकाशित करना। २. पाइय-सद्द-महण्णवो का ही पुनः मुद्रण करना । ३. मूल पाइय-सद्द महण्णवो को ही संक्षिप्त और लघुकाय बनाना । प्रथम विकल्प अत्य त खर्चीला और दीर्घकालीन था एवं अनेक विद्वानों के सहयोग के बिना यह शीघ्र कार्यान्वित भी नहीं हो सकता था। द्वितीय विकल्प भी खर्चीला था और उसमें कोई नवीनता नहीं थी। तत्काल इन दोनों में से एक भी विकल्प की पूर्ति करने में हमारी संस्था असमर्थ ही थी। अतः हमारे लिए संभव यही था कि तृतीय विकल्प चुना जाय । तदनुसार प्राकृत और जैन विद्या के सुविख्यात और माननीय विद्वान् पं० थी दलसुखभाई मालवणिया और डॉ० श्री ह० चू० भायाणी के साथ इस बारे में विचार-विमर्श किया गया। उन्होंने फिलहाल इस योजना को ही उचित समझा और अपनी तरफ से पूर्ण सहयोग देने की उदारता दर्शायी। उनके इस प्रोत्साहन के फल-स्वरूप ही यह कोश अपने परिवर्तित एवं संक्षिप्त रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हो सका है। यहाँ इस किञ्चित् परिवर्तित आवृत्ति की आवश्यकता और महत्व पर कुछ प्रकाश डालना जरूरी है। पाइय-सद्द-महण्णवो में प्रत्येक शब्द के साथ प्राकृत ग्रन्थों से संदर्भ दिये गये हैं और अनेक स्थलों पर मूल ग्रन्थों से उद्धरण भी दिये गये हैं। उनकी अपनी उपयोगिता है परन्तु सबके लिए इनका महत्व एक समान नहीं होता है। विद्यार्थियों के लिए ऐसे संदर्भो और उद्धरणों की उपयोगिता कम ही होती है। अनेक जगह ग्रन्थों की हस्तप्रतों से उद्धरण दिये गये हैं और उन हस्तप्रतों को प्राप्त करना भी दुष्कर ही होता है। ई. स. १८४२ और उसके पश्चात् अधिकतर ई. स. १९२४ तक प्रकाशित संस्करणों में से दिये गये उद्धरणों की बहुलता है और ये संस्करण आज सब जगह उपलब्ध भी शायद ही हों, अतः उनकी उपादेयता अल्प रह गयी है । मूल पाइयसद्द-महण्णवो को पुनः प्रकाशित करने के लिए यह आवश्यक था कि उसमें दिये गये उद्धरणों के साथ नये संस्करणों के संदर्भ जोड़े जाय परन्तु ऐसा शीघ्र संभव नहीं होने के कारण यह किञ्चित् परिवर्तित आवृत्ति तैयार की गयी। इसमें पा.स.म. का एक भी मूल शब्द या अर्थ छोड़ा नहीं गया है, मात्र उद्धरण निकाल दिये गये हैं। अर्थों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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