Book Title: Prakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 8
________________ संस्कृत को अपभ्रष्ट करके बनीं, यह एक भ्रान्त अवधारणा है। पुनः कालक्रम में इन क्षेत्रीय बोलियों या प्राकृतों ने भी साहित्यिक भाषा का स्वरूप ग्रहण किया। इसमें सर्वप्रथम अभिलेखीय प्राकृत अस्तित्व में आई। चूंकि अभी तक पठित अभिलेखों में अशोक के अभिलेख ही प्राचीनतम माने जाते हैं-इनकी जो भाषा है वही अभिलेखीय प्राकृत है। इनकी भाषा मुख्यतः मागधी प्राकृत के निकट है, किन्तु अशोक के अभिलेखों की प्राकृत मागधी के निकट होते हुए भी, वे अभिलेख जिन-जिन क्षेत्रों में खुदवाये गए हैं, उनमें वहां-वहां की क्षेत्रीय प्राकृत बोलियों के शब्दरूप भी क्वचित् रूप से आ गये हैं। यह मागधी के अर्धमागधी बनने के इतिहास का प्रारंभिक चरण था। जिन-जिन लोकबोलियों का रूपान्तर साहित्यिक प्राकृत में हुआ, उनमें मागधी का स्थान प्रथम है, क्योंकि उसमें न केवल अशोक के अभिलेख लिखे गए, अपितु वह बौद्ध त्रिपिटकों की पाली और जैन आगमों की अर्धमागधी का आधार भी रही है। अभिलेखीय प्राकृत में दूसरा स्थान खारवेल के अभिलेख ई.पू. प्रथम शती का और तीसरा स्थान मथुरा के जैन अभिलेखों ई. की 1-3 री शती का आता है। आश्चर्य यह है कि ईस्वी सन् की तीसरी शती तक का कोई भी अभिलेख संस्कृत भाषा में नहीं लिखा गया। मथुरा के कुछ जैन अभिलेखों में क्वचित् संस्कृत शब्दरूप देखे जा सकते हैं, किन्तु कोई भी अभिलेख न तो शुद्ध संस्कृत में है और न मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' को प्रधानता देने वाली शौरसेनी प्राकृत में मिला है। उनमें शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत में प्रचलित 'न' के स्थान पर सर्वत्र 'ण' का अभाव परिलक्षित होता है और न महाराष्ट्री प्राकृत की लोप की 'य' श्रुति ही मिलती है। मुख्य बात यह है कि अशोक के काल में राज्यभाषा के रूप में मागधी प्राकृत को ही प्रधानता मिली थी। अतः उसका प्रभाव ईसा की दूसरीतीसरी शती तक बना रहा। इतना सुनिश्चित है कि इसी मागधी को संस्कृत के सन्निकट लाने के प्रयत्न में पाली का विकास हआ, जिसमें बौद्ध त्रिपिटक साहित्य आज भी उपलब्ध है। उसी मागधी के सरलीकरण के प्रयास में आसपास की क्षेत्रीय बोलियों के शब्द-रूपों के मिश्रण से आचारांग और इसीभासियाई जैसे प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगमों की रचना यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अर्धमागधी आगम साहित्य की पाटलीपुत्र में नंदवंश की समाप्ति और मौर्ययुग के प्रथम चरण अर्थात् वीरनिर्वाण के लगभग 150 वर्ष पश्चात् और

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