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या सीता प्रेम विसर्जन था,
या श्रद्धांजलि का अर्पण था । दो मोती राम के मानस के, सीता को आज समर्पण था ।। (४५) अब थे विचारते राम अहो,
क्या जीवन जनता का मन है । जनता को चाहे खुश करना,
तो न्याय नहीं करता जन है ।। (४६)
वन में उसका अपहरण हुआ,
इसमें उसका अपराध न था । वह लंका में छह मास रही,
पर मन तो उसका साथ न था ।। (४७)
जंगल में उसकी रक्षा का, उत्तरदायित्व हमारा इसमें उसका था क्या कसूर ?, उसने तो हमें पुकारा था ।। (४८) पर हमने इसके बदले में,
था ।
उसको निर्जन वनवास दिया । क्या यही न्याय है रामचन्द्र !,
हमने इसमें क्या न्याय किया ? ।।
पश्चात्ताप
पश्चात्ताप
(४९) जन नायक तो उसको कहिये, जो न्याय तुला पर तोल सके । जनता के मन को न देखे,
बस न्याय नेत्र ही खोल सके ।। (५०)
जो न्याय नहीं कर सकता वह, कैसा अधिकारी शासन का ? परित्यक्ता भी फटकार सके,
वह राजा नहीं प्रजाजन का ।। (५१)
यदि न्याय पक्ष अपना सच हो, चाहे जनगण विद्रोह करे । चाहे सुमेरु भी हिल जाये,
पर नहीं न्याय से वीर फिरे ।। (५२) लोकापवाद से डरकर के,
है सत्य छिपाना कायरता । किसकी जग निन्दा नहीं करे, निन्दा से डरना पामरता ।। (५३) बहुमत का कहना सच्चा है,
बहुमत कह दे कि पाप करो । क्या पाप न्याय कहलायेगा,
तो दीन हीन असहाय मरो ।।
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