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पश्चात्ताप
एक समीक्षात्मक अध्ययन
मेरे अपराध दण्ड में भी,
तू अरे देर क्यों करता है। तू खूब जला शोकानल में,
रे बन्धु दया क्यों करता है ।।७१ ।। कहने का भाव यही है कि कवि ने मोटे तौर पर सभी बहुप्रचलित अलंकारों का प्रयोग किया है। यद्यपि कुछ अप्रचलित अलंकार भी है। रूपक काव्य में आयंत विद्यमान है ही। भाषा को गौरवान्वित करने के लिए कवि ने पश्चात्ताप' में जो अलंकार जुटाए हैं; वे प्रयत्न साध्य नहीं है, वरन सहज, स्वाभाविक रूप से भाषा को प्रवाहमय बनाने के लिए प्रयुक्त हुए हैं।
प्रकरण के अंत में यह कहना जरूरी होगा कि आलोच्य कृति के कवि ने भाषा के कुछ निश्चित शास्त्रीय चौखटे स्वीकार किये हैं। क्योंकि रसीली भाषा के धनी, बुन्देलखण्ड क्षेत्र के मूलनिवासी होने के बावजूद रचना में क्षेत्रीय अथवा देशज शब्दों का त्याज्य या अस्पृश्य हो जाना, आश्चर्य पैदा करता है। हो सकता है यह विषय का तकाजा हो; क्योंकि भावों जैसी वाणी मिली, उनके लिए प्रयुक्त भाषा ही उपयुक्त थी।
(६) 'पश्चात्ताप' : छन्द विधान -
छन्द का काव्य के उस तत्त्व का नाम है, जिसमें वर्णों या मात्राओं की संख्या निर्धारित रहती हैं; गुरु-लघु का क्रम, यति-गति की व्यवस्था निर्धारित हो।
‘पश्चात्ताप' की रचना आद्यन्त दो छन्दों में हुई है। प्रारम्भ के ३० छन्दों की रचना श्रृंगार छन्द में शेष छन्दों की रचना पद्धरिका छन्द में की गई है।
'शृंगार' छन्द सोलह मात्राओं के चार चरणों का सममात्रिक छन्द है। प्रत्येक चरण की सोलह मात्राएँ त्रिकल या द्विकल में विभाजित होती
हैं। सामान्यतः चरण के आरंभ में गुरु का प्रयोग नहीं होता एवं चरणांत में। गुरु-लघु का विधान होता है। ____ छायावादी काव्य में यह छन्द बहुप्रयुक्त छन्द है। उदाहरण के लिए कामायनीकार ने कामायनी का श्रद्धा सर्ग इसी छन्द को समर्पित किया एवं महादेवी के प्रगीत मुख्यतः इसी छन्द में रचे गए हैं। कोमल भावों की अभिव्यक्ति के लिए यह छन्द उपयुक्त माना गया है। ___दूसरे पद्धरिका छन्द के भी प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं जो चार चतुष्कल में विभाजित होती हैं और अंत में जगण को रखा जाता है। पद्धरिका हिन्दी का अपनी जातीय छन्द है और इसका हिन्दी कवियों ने बहुत प्रयोग किया है। स्वयं कवि ने अपने परवर्ती काव्य सृजन सिद्ध पूजन जयमाला 'जय ज्ञानमात्र ज्ञायक स्वरूप' और अन्य पूजनों की जयमाला में प्रयोग किया है।
छन्द के रचना-प्रयोग की दृष्टि से रचना अल्पवय साध्य होने के पूर्णतः निर्दोष नहीं रही है, अपितु कहीं-कहीं स्खलन या स्वच्छन्दता भी पाई जाती है।
पश्चात्ताप : काव्य-रूप -
किसी भी कृति के काव्य रूप का निर्धारण करना एक टेड़ी खीर होता है। कवि अपनी भाव प्रवाहमयता में जिस काव्य की रचना कर देता है, वह बँधे-बँधाए नियमों को अनुरूप हो भी सकती है और नहीं भी। यदि अनुरूपता हो तब तो कोई दिक्कत नहीं होती, न कवि को और न समीक्षक को; पर समस्या तब आती है, जब लक्षणों के साँचे में कृति अटती नहीं और वह नितांत भिन्न लक्षणों के साथ नई विधात्मक अवधारणा की अपेक्षा रखती है।