Book Title: Paschattap
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ पश्चात्ताप एकसमीक्षात्मक अध्ययन कहीं जा रही हैं, जब राम कहते हैं 'नहीं मैं जाने ना दूंगा'। कहाँ? | किसको? क्यों? जवाब अगले छन्दों में मिलता है। यहाँ आकर लगता है कि कवि स्वप्न शैली का प्रयोग कर रहा है। सीता के दीक्षा के लिए जाते ही राम मूर्च्छित हो गए और उस मूर्छा की अवस्था में ही जैसे आत्मालाप किये जा रहे हैं। राम मूर्च्छित हैं, स्वप्न में सीता से संवाद कर रहे हैं, स्वयं को अपराधी मान रहे हैं, क्षमा मांग रहे हैं। सुनो अपराधी हूँ सीते!, करो अपराध क्षमा मेरा ।।१८।। परन्तु आश्चर्य ! महा आश्चर्य ! सीता क्षमा और क्रोध दोनों ही स्थितियों से ऊपर उठ गई हैं। यद्यपि ऐसा होना तो तद्भव मोक्षगामी राम को चाहिए था, किन्तु हो गई सीता । उत्तर में सीता वही कहती हैं, जो किसी भी भारतीय नारी को क्षमा माँगते अपराधी प्रेमपात्र से कहना चाहिए था। कहा इतना ही सीता ने. नहीं अपराध तुम्हारा है। करमफल पूरब का जानो, करमबल सबसे न्यारा है।।१९।। पूर्वोपार्जित कर्मफल के कारण यह सब घटित हुआ अर्थात् पूर्वभव में मैंने कोई भूलें की होगी, जिनके कारण इस भव में ऐसे संयोग मिले, इसलिए तुम्हारा दोष नहीं है। कहने को कह तो दिया सीता ने कि 'नहीं अपराध तुम्हारा है' पर कसक अभी बाकी थी। राम ने सीता को जब दण्ड दिया, तब सीता को सफाई देने का अवसर ही नहीं दिया । आज सीता के पास अवसर था - बात बस इतनी है हे नाथ!, मिला देते सत् का संयोग।॥२३॥ पर सीता इतनी सी ही बात कहकर जो बात को छोटा कर रही है, वह बात उतनी छोटी नहीं है, बल्कि आदर्श राम के धीर गम्भीर व्यक्तित्व पर गम्भीर आरोप है कि उनके निर्णयों में 'सत् का संयोग' नहीं है। उन्हें कृत्य-अकृत्य का काल-विवेक नहीं है। यदि मन में चरित्र के विषय में कोई संदेह था तो परीक्षा निर्वासन के समय ही ले लेते, किन्तु राम तो पुरुष ही नहीं महापुरुष थे, वे नारी के हृदय की पीड़ा को कैसे समझ पाते? न तब समझ पाए, न अब समझ पाए। आखिर में सीता राम को समझाती है - अरे निन्दा सुनकर मेरी, नाथ ! त्यागा तुमने मुझको । धर्म की सुनकर निन्दा कभी, त्याग मत देना तुम उसको ।।२८ ।। इस अंतिम उपदेश के बाद सीता दीक्षा हेतु चल देती हैं। राम उन्हें जाते देख रहे हैं। लव-कुश, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न ने अपने प्रेम का वास्ता देकर रोकने की कोशिश की, पर सीता नहीं रुकी। ___ यहीं पर कवि एक मार्मिक बिम्ब की सृष्टि करता है - राम प्रेम में विह्वल हैं, आँखों से अश्रु की धारा बह रही है। कवि इन आँसुओं को विह्वलता का लक्षण चित्रित करते हैं, और मुझे राम की असमर्थता का बोध कराते लगते हैं। राम सारी कोशिशों के बावजूद चाहकर भी नहीं रोक पा रहे हैं। सीता चली जाती है। राम का पश्चात्ताप जारी है। इस क्षण राम के पास समय है कि वे अपनी भूलों का पुनरावलोकन कर सकें। राम पुनरावलोकन करते हैं और इसी दौरान राम कई अबूझ प्रश्नों से दो-चार होते हैं। आखिर न्याय है क्या - जन-मन की प्रसन्नता, बहुमत का निर्णय या सत्य का साथ? नारी की पवित्रता के निर्णय का अधिकार किसे है - राजा को. पति को या जनता को? यदि सीता की पवित्रता में शंका करता तो मैं करता, जनता को अधिकार कैसे मिला?

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43