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________________ २२ (88) या सीता प्रेम विसर्जन था, या श्रद्धांजलि का अर्पण था । दो मोती राम के मानस के, सीता को आज समर्पण था ।। (४५) अब थे विचारते राम अहो, क्या जीवन जनता का मन है । जनता को चाहे खुश करना, तो न्याय नहीं करता जन है ।। (४६) वन में उसका अपहरण हुआ, इसमें उसका अपराध न था । वह लंका में छह मास रही, पर मन तो उसका साथ न था ।। (४७) जंगल में उसकी रक्षा का, उत्तरदायित्व हमारा इसमें उसका था क्या कसूर ?, उसने तो हमें पुकारा था ।। (४८) पर हमने इसके बदले में, था । उसको निर्जन वनवास दिया । क्या यही न्याय है रामचन्द्र !, हमने इसमें क्या न्याय किया ? ।। पश्चात्ताप पश्चात्ताप (४९) जन नायक तो उसको कहिये, जो न्याय तुला पर तोल सके । जनता के मन को न देखे, बस न्याय नेत्र ही खोल सके ।। (५०) जो न्याय नहीं कर सकता वह, कैसा अधिकारी शासन का ? परित्यक्ता भी फटकार सके, वह राजा नहीं प्रजाजन का ।। (५१) यदि न्याय पक्ष अपना सच हो, चाहे जनगण विद्रोह करे । चाहे सुमेरु भी हिल जाये, पर नहीं न्याय से वीर फिरे ।। (५२) लोकापवाद से डरकर के, है सत्य छिपाना कायरता । किसकी जग निन्दा नहीं करे, निन्दा से डरना पामरता ।। (५३) बहुमत का कहना सच्चा है, बहुमत कह दे कि पाप करो । क्या पाप न्याय कहलायेगा, तो दीन हीन असहाय मरो ।। २३
SR No.008366
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages43
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size175 KB
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