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________________ पश्चात्ताप पश्चात्ताप (३४) यह सुनकर सीता देवी यों, मृदु स्वर में धीरे से बोलीं। नाते-रिश्ते सब झूठे हैं, इनमें उलझी दुनिया भोली ।। (३९) पृथिवीमति की अनुगामिन हो, मानो पृथिवी में समा गईं। बस इसीलिये जग कहता है, सीता पृथिवी में समा गईं।। (४०) देहान्त समय तो सबका तन, मिट्टी में ही मिल जाता है। सीता देवी का कोमल तन, ___भी मिट्टी में मिल जाता है।। नातों का ताप न तपना है, नाते न मुझको अब भायें । नाते ही जग के बन्धन हैं, ये सभी जगत को भरमायें ।। जन को निहार जग मरता है, फिर बार-बार देखा करता। मुझको निहार लंकेश मरा, तप धारेगी अब जनकसुता ।। (३७) यह कह कर फेरी नेत्र किरण, मानो सूरज की किरण मुड़ी। निर्जन जंगल की ओर बढ़ी, थी देख रही सब मही खड़ी ।। (३८) पृथिवीमती आर्या के समक्ष, सीता ने व्रत स्वीकार किये। बस एक श्वेत साड़ी रखकर, सब वस्त्राभूषण त्याग दिये ।। २. पृथ्वी; यहाँ पृथ्वी वासी। है अरे नयापन इसमें क्या, मिट्टी मिट्टी में समा गई। सीता माता का शुद्धातम, तो शुद्धातम में समा गया ।। (४२) जन-जनकी आँखें भर आई, अर रोम-रोम हो गये खड़े। सीतेश प्रभु की आँखों से, टपटप दो आँसू टपक पड़े।। (४३) वे आँसू थे या मुक्तामणि, या राम हृदय-परिचायक थे । या प्रेमलता सिंचक जल थे, घनश्याम राम के द्रावक थे।। १. काले मेघ २. हृदय पिघला देनेवाले १.देखकर
SR No.008366
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages43
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size175 KB
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