Book Title: Parmatma hone ka Vigyana Author(s): Babulal Jain Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha View full book textPage 9
________________ अपनापना आ जाता है। शरीर के अनुकूल सामग्री में राग होता है और प्रतिकूल सामग्री से द्वेष । शरीर में अपनत्व के अलावा, इसके जो शुभ -अशुभ विकारी भाव हो रहे हैं उनको भी यह अपने- -रूप ही देखता है। शरीर और शरीर-संबंधी पदार्थों को अपने रूप देखने से इसके उन सबमें अहम्पना या अहंकार पैदा होता है । अहंकार को ठेस लगने पर क्रोध होता है। अहंकार की पुष्टि के लिये 'पर' का - दूसरे जड़ व चेतन पदार्थों का — संग्रह करना चाहता है तो लोभ पैदा होता है, और अनुकूल उपाय न बनने पर मायाचार - रूप प्रवृत्ति करता है। इस प्रकार कय अथवा राग-द्वेष का मूल कारण शरीर को अपना मानना है, कर्मजनित अवस्था में अपनापना मानना है। अब और आगे चलते हैं - चूँकि यह शुभ - अशुभ भावों को अर्थात् राग-द्वेष को अपने रूप देखता है, इसलिये उन्हें अपने स्वभाव ही गिनता है। इस कारण से उनके अभाव के बारे में तो सोच भी नहीं सकता । इस प्रकार हम देखते हैं कि रागद्वेष-रूपी वृक्ष का मूल अथवा जड़ तो है इस जीव की यह मान्यता कि 'मैं शरीर हूँ' और इस वृक्ष का सिंचन कर रही है यह धारणा कि 'राग-द्वेष मेरे स्वभाव हैं।' शरीर और राग-द्वेष के साथ एकात्मता की ये मिथ्या मान्यताएँ तभी मिट सकती हैं, जब यह जीव अपने को पहचाने और जाने कि मैं शरीर नहीं, शुभ-अशुभ भाव या राग-द्वेष भी मैं नहीं - ये मेरे स्वभाव नहीं, मैं तो इन सबसे भिन्न ज्ञान का मालिक, एक अकेला चैतन्य-तत्त्व हूँ। सुख का मूल कारण : अपना अपने रूप अनुभव जब हम अपने को शरीर - रूप अनुभव करते हैं तो समस्त प्रकार की आकुलताएँ हमें घेर लेती हैं, नाना प्रकार के विकल्प आ खड़े होते हैं - इतनी बात तो हम सभी के द्वारा अनुभूत है क्योंकि स्वयं को शरीर रूप तो हम सदा से देखते चले आ रहे हैं। इसके विपरीत, जब हम अपने को अपने-रूप, चैतन्य-रूप अनुभव करते हैं तो कोई आकुलता नहीं रहती, क्योंकि जो ज्ञान-स्वभावी चैतन्य है उसका न तो कोई जन्म है और न ही कोई मरण; उसके अनन्त गुणों में से न तो कोई कम होने वाला है और न ही कहीं बाहर से आकर कुछ उसमें मिलने वाला है। अतः न तो कुछ बिगड़ने का अथवा चले जाने का भय हो सकता है, और न कुछ आने का या मिलने का लोभ । चूंकि सभी आत्माएँ इसी प्रकार ज्ञान - स्वभावी हैं ( ९ )Page Navigation
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