Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 29
________________ का भी उपदेश दिया जाता है तभी बात पूरी होती है। त्याग और ग्रहण ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, जैसे कि रुपये के सिक्के की दो साइड्स (sides); यही चरणानुयोग और अध्यात्म की मित्रता है, एकता है। अथवा, इन दोनों की एकता मानो एक रस्सी है जिसका एक सिरा यदि चरणानुयोग है तो दूसरा सिरा अध्यात्म है। रस्सी का एक सिरा दूसरे के बिना नहीं हो सकता-ग्रहण त्याग की अपेक्षा रखता है और त्याग ग्रहण की। 'पर' से हटे बिना 'स्व' में आना सम्भव नहीं है, और यदि 'पर' से हटने मात्र पर ही दृष्टि रही- 'स्व' में पहुंचने की बात उसमें गर्भित न हुई–तो वहाँ ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि एक 'पर' से हटकर दूसरे ‘पर' में अटकाव हो जायेगा। यदि हम दोनों अनुयोगों की मैत्रीरूपी इस रस्सी को काटकर दो कर देते हैं, तब न तो अकेला अध्यात्मवाद कार्यकारी है और न ही अकेला चरणानुयोग अर्थात् बाहरी आचरण। रस्सी को काट देने से दोनों ही एकान्तवाद बन जाते हैं। और यदि एक-दूसरे के सापेक्ष इनके सही स्वरूप को माना जाये तो चरणानुयोग अध्यात्म का पूरक होगा और अध्यात्म चरणानुयोग का। असल में सच्चा मोक्षमार्ग अध्यात्म और चरणानुयोग की एकता से ही बनता है। जैसे-जैसे साधक आत्मस्वभाव के सन्मुख होता है, वैसे-से कर्म हल्के होते जाते हैं और वैसे-वैसे ही आचरण बदलता जाता है। यह मिलान है; अगर बाहरी आचरण सही नहीं है तो कर्म भी हलके नहीं हुए और स्वभाव की साधना भी नहीं हुई, ऐसा नियम है। यदि कोई व्यक्ति बाहरी आचरण की तरफ से चलता है और स्वरूप के प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है तो जब वह स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, तब वही बाहरी आचरण सच्चा व्यवहार बन जाता है, उसमें सच्चाई आ जाती है। आत्म-अनुभव जीव का अपना चुनाव जैसा कि ऊपर विचार कर आये हैं, इस जीव की जाननशक्ति निरन्तर पर में लगी हुई है-शरीर और शरीर-सम्बन्धी पदार्थों की ओर केन्द्रित है। यह जीव अपने को शरीर-रूप देखता है, शरीर के स्तर पर खड़ा होता है तो पाता है कि स्वास्थ्य, सौन्दर्य, बुद्धि, शैक्षिक उपाधि, धन, पद, प्रतिष्ठा, स्त्री (२९)

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