Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 49
________________ करता है। आत्म-उत्थान के प्रति तीव्र रुचि, अत्यन्त प्रेम रखता है। आत्मोत्थान की दिशा में बढ़ने का उपाय करता है। संसार-शरीर-भोगों से विरक्ति और आत्मस्वरूप में प्रवृत्ति बढ़ती है। जीव मात्र को अपने समान चैतन्यरूप देखता है, अत: उनके प्रति अनुकम्पा का भाव पैदा होता है। जीवा की रक्षा के लिए रात्रि-भोजन का त्याग और पानी छानकर पीने आदि की पद्धति अपनाता है। इस भूमिका में रहते हुए कम-से-कम छह महीने में एक बार आत्मानुभव अवश्य होता है, अन्यथा चौथा गुणस्थान नहीं रहता। यदि परिणामों में गिरावट आती है तो चौथे से फिर पहले गुणस्थान में पहुँच जाता है। तीसरा और दूसरा गुणस्थान जीव के चौथे से पहले की ओर गिरते समय मात्र कुछ काल के लिये होते हैं। पुन: यदि अपने परिणामों को ठीक कर लेता है तो फिर से ऊपर चढ़ने की संभावना बनती है। पाँचवां गुणस्थान चौथे गुणस्थान में रहते हुए साधक जब आत्मानुभव को जल्दी-जल्दी प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है तो देशसंयम-रूप परिणामों की विरोधी जो अप्रत्याख्यानावरण कषाय है वह मंद होने लगती है। जब यह पन्द्रह दिन में एक बार आत्मानुभव होने की योग्यता बना लेता है तो पाँचवें गुणस्थान में पहुँचता है। वहाँ अंतरंग में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होता है. त्याग के भाव होते हैं और बहिरंग में अणुव्रतादिक बारह व्रतों को धारता है, तथा ग्यारह प्रतिमाओं के अनुरूप आचरण क्रम से शुरू होता है। वहां जो कषाय के अभाव में निवृत्ति है वह चारित्र है, धर्म है; और जो कषाय के आंशिक सद्भाव में व्रतादि-रूप आचरण है वह शुभ-भाव होने से पुण्य-बंध रूप है। अब उन प्रतिमाओं (stages) के स्वरूप पर विचार करते हैं : पहली-दर्शन प्रतिमा : अब सप्त व्यसन का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करता है। जो भी कषाय बढ़ने के साधन हैं उनका त्याग करता है। जीव-रक्षा के हेतु ऐसे कारोबार से हटता है जिसमें जीव-हिंसा अधिक होती हो। रात्रि-भोजन का त्याग और खाने-पीनेकी चीजों को जीव-हिंसा से बचाने के लिये देख-शोधकर ग्रहण करता है।

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