Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 50
________________ दूसरी-व्रत प्रतिमा : पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, और चार शिक्षाव्रत, इस प्रकार बारह व्रतों का पालन इस प्रतिमा से शुरू होता है। यद्यपि साधक की दृष्टि समस्त कषाय का अभाव करने की है तथापि आत्मबल उतना न होने के कारण जितना आत्मबल है उसी के अनुसार त्याग-मार्ग को अपनाता है, और जितनी कषाय शेष रह गई है उसे अपनी गलती समझता है। उसके भी अभाव के लिए अपने आत्मबल को बढ़ाने की चेष्टा करता है, और आत्मबल की वृद्धि चूंकि आत्मानुभव के द्वारा ही सम्भव है, अत: उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। जितना-जितना स्वावलम्बन बढ़ता है उतना-उतना परावलम्बन घटता जाता है। बहिरंग में परावलम्बन को घटाने की चेष्टा भी वस्तुतः स्वावलम्बन को बढ़ाने के लिये ही की जाती है। जैसे कि चलने के लिये कमजोर आदमी द्वारा पहले लाठी का सहारा लिया जाता है, फिर उसके सहारे से जैसे-जैसे वह चलता है, वैसे-वैसे सहारा छूटता जाता है। आत्मा को यद्यपि किसी सहारे की आवश्यकता नहीं, वह स्वयं में परिपूर्ण है, तथापि अभी आत्मबल की कमी है। जितना पर का अवलम्बन है उतनी ही पराधीनता है, कमी है। अत: आत्मबल को बढ़ाता है तो पराधीनता घटती जाती है। पहले अन्याय, अनाचार, अभक्ष्य तक की पराधीनता थी, अब वह घट कर न्यायरूप प्रवृत्ति, सदाचार, हिंसा-रहित भक्ष्य पदार्थों तक सीमित हो जाती है। पहले व्यापार आदि में झूठ, चोरी आदि की किंचित् प्रवृत्ति थी, अब वह प्रवृत्ति झूठ और चोरी से रहित हो जाती है। पहले परिग्रह में असीम लालसा थी, अब उसको सीमित करता है। इस प्रकार अपनी अभिलाषा, लालसा और इच्छाओं की सीमा निर्धारित करता है। जिस प्रकार जब कोई मोटरकार पहाड़ पर चढ़ती है तो ब्रेक के द्वारा तो गाड़ी को नीचे की ओर जाने से रोका जाता है और एक्सीलेटर के द्वारा गाड़ी को आगे बढ़ाया जाता है, उसी प्रकार प्रतिज्ञारूप त्याग के द्वारा तो साधक अपनी परिणति को नीचे की ओर जाने से रोकता है, और आत्मानुभव के द्वारा आगे बढ़ाता है। अथवा यह कहना चाहिए कि त्याग और आत्मानुभव दोनों का कार्य उसी प्रकार. भिन्न-भिन्न है जिस प्रकार परहेज और दवाई का; (५०)

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