Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 55
________________ इस प्रकार, इन पाँच अणुव्रतों के माध्यम से अपनी लालसा, कामना और इच्छाओं की—जिनकी अभी तक कोई सीमा नहीं थी—सीमा बनाता अब बारह व्रतों के अन्तर्गत आने वाले तीन गुणव्रतों के स्वरूप पर विचार करते हैं : (१) दिग्वत : व्यापार-व्यवसाय के लिए मैं यहाँ-यहाँ तक आऊँ-जाऊँगा, इस प्रकार क्षेत्र की सीमा बनाता है और उस सीमा के बाहर के क्षेत्र से कोई प्रयोजन नहीं रखता। (२) देशव्रत : दिग्व्रत द्वारा निर्धारित किए गए क्षेत्र के भीतर भी सप्ताह दो-सप्ताह के लिए, अथवा प्रतिदिन, एक अस्थायी सीमा बनाता है। इन दोनों व्रतों के माध्यम से निर्धारित क्षेत्र के बाहर जो जीव-अजीव पदार्थ हैं, उन-सम्बन्धी विकल्पों से बचा जाता है। अनर्थदण्ड-व्रत : बिना प्रयोजन के न तो शरीर की कोई क्रिया करता है, न फालतू बकवास करता है, न फालतू के विचार-विकल्प करता है। दूसरों को जीव-हिंसादि के साधनादिक भी नहीं देता। इस प्रकार सब निरर्थक बातों से बचता है। इन तीन गुणव्रतों के साथही-साथ चार शिक्षाव्रतों का भी पालन करता है : (१) सामायिक व्रत : अपना समय आत्म-चितवन में लगाने के लिए दिन में कम-से-कम दो बार, सुबह और शाम को आत्मध्यान करता (२) प्रोषधोपवास व्रत : सप्ताह में एक दिन उपवास करता है और उस दिन अपना सारा समय स्वाध्याय और आत्म-चिंतवन में लगाता है, जिससे वैराग्य भाव की पुष्टि हो। (३) भोगोपभोग-परिमाण व्रत : प्रति दिन कुछ-न-कुछ भोग्य और उपभोग्य पदार्थों का त्याग करता है। अपने रोजाना के कार्यों का भी हर रोज परिमाण करता है। (0) अतिथिसंविभाग व्रत : निरंतर यह भावना करता है कि कोई धार्मिक व्यक्ति आये तो उसे भोजन कराने के पश्चात् ही स्वयं भोजन (५५)

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