Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 48
________________ तो यद्यपि मेरा बल तो उतना ही है, परन्तु जब उस आदमी ने अपनी तरफ खींचा तब मैंने अपनी ताकत उसके विपरीत दिशा में लगा दी। इस चेष्टा का नतीजा यह हुआ कि इस बार जो थोड़ा-सा खिंचाव आया भी, वह उस आदमी की ताकत में से मेरी ताकत को घटाने पर जो थोड़ी-सी ताकत शेष (resultant force) बची, उसके फलस्वरूप आया। यही बात कर्मोदय के सम्बन्ध में है। यदि हम कर्म के बहाव में स्वेच्छा से बहने के बजाय अपना पुरुषार्थ विपरीत दिशा में अर्थात् आत्म-स्वभाव में रत होने में लगायें तो कर्म का फल उतना न होकर बहुत कम होगा, पहले की अपेक्षा नगण्य (negligible) होगा। चूंकि समस्त कषाय को मिटाने में अभी स्वयं को असमर्थ पाता है, अतः तीव्र कषाय को — और उसके बाह्य आधारों, जैसे कि ऊपर कहे गए सप्त व्यसनादि, और अन्याय, अभक्ष्य आदि को — छोड़ते हुए मंद कषाय में रहकर उसको भी मिटाने की चेष्टा करता है । वहाँ वीतरागी सर्वज्ञ देव, उनके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र और उसी मार्ग पर चल रहे गुरु — जो मानो जीवन्त शास्त्र ही हैं- इनको माध्यम बनाकर निज स्वभाव की पुष्टि करता रहता है। सम्यग्दर्शन के साथ पाये जाने वाले गुण अब चूंकि शरीर के स्तर से चेतना के स्तर पर आ गया है, इसलिए इसे सात प्रकार का भय भी नहीं होता । मेरा अभाव हो जायेगा ऐसा भय कदापि नहीं होता, कर्मोदय -जनित (नोकषाय-जनित) भय यदि आत्मबल की कमी से होता भी है तो उसका स्वामी नहीं बनता । कर्मफल की वाँछा भी इसके नहीं रहती, क्योंकि यह निर्णय हो चुका है कि पुण्य और पाप दोनों के फल से भिन्न मैं तो मात्र चेतना हूँ । अतः न तो पुण्य फल की अभिलाषा है और न पाप के फल से ग्लानि है, चाहे अपने पाप का फल हो या दूसरे के । कौन मेरे लिए ध्येय है, मार्गदर्शक है, इस विषय में कोई मूढ़ता तो अब रह ही नहीं गई है। ध्येय के स्वरूप को समझकर उसका अवलम्बन ले रहा है, देखा-देखी की बात अब नहीं रही । निरन्तर आत्मगुणों को बढ़ाने की चेष्टा करता है, और स्वयं को पर से हटाकर अपने गुणों में स्थिर रखने का उपाय ( ४८ )

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