Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ दिखाई देने लगेंगे। शरीर और चेतन-स्वभाव दोनों तेरे पास हैं, तू स्वयं ही अनुभव करने वाला है। शरीर को अपने-रूप अनुभव करना तो तुझे आता ही है, शरीर के बजाय किन्तु उसी प्रकार चेतना को अपने-रूप अनुभव करना है। शरीर के स्तर पर तो तुझे पूरा भेद-ज्ञान भी है-दूसरे की चीज को अपनी नहीं मानता। वैसा ही भेद-ज्ञान चेतना के स्तर पर करना है। यह केवल तुझ पर ही निर्भर है। उस भेदज्ञानपूर्वक मात्र स्वयं में रह जाना है, बस परमानंद को प्राप्त हो जायेगा। आचार्य और आगे कहते हैं कि हम उसी परमानन्द का भोग कर रहे हैं; एक बार हमारी बात केवल एक घड़ी के लिए मानकर समस्त पदार्थों से अलग अपने स्वरूप को, चैतन्यरूप को-जैसा कि तू वस्तुतः है—देख ले तो तेरा अनन्तकाल का दुख समाप्त हो जायेगा। जैसा कि तू स्वयं को आज तक देखता आ रहा है-शरीररूप और रागद्वेषरूप-वैसा तू न कभी था, न है, और न ही कभी हो सकेगा। यह शरीर तो जड़ पदार्थ है, इसकी कोई भी, कैसी भी अवस्था तुझ चैतन्य को प्रभावित नहीं कर सकती, इसके नाश से भी तेरा नाश नहीं हो सकता। इसका तो महत्त्व भी तभी तक है जब तक तू इसमें ठहरा हुआ है, अन्यथा लोग इसको छुएँगे भी नहीं, इसे जला देंगे। इसका कोई महत्त्व नहीं, महत्त्व तो तेरा है, तुझ चैतन्य-तत्त्व का है। अत: चैतन्य का, आत्मा का अनुभवन जरूरी है, बाकी सब मजबूरी है। (३१)

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66