Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 39
________________ जाए जब तक कि वह गड़े हुए धन तक न पहुँच जाए। इसी प्रकार हमें भी शास्त्र - रूपी नक्शे के द्वारा तत्त्व को समझ कर अपने अंतरंग में — जहाँ वह तत्त्व है वहाँ - उस तत्त्व की खोज करनी है, और तब तक खोजते चले जाना है जब तक कि उस निज तत्त्व की प्राप्ति न हो जाए। शास्त्रों से हासिल की गई जानकारी को यदि आत्मदर्शन / आत्म-अनुभव का साधन न बनाया जाए तब ऐसी जानकारी से तो अहंकार की ही पुष्टि होती है - एक किताबी (Theoretical) ज्ञान है जबकि दूसरा अनुभव -जनित ज्ञान। अत: हमें आगम से जानना है और अपने में देखना है। आत्म-अनुभव होने पर ही इसे वस्तुत: समझ में आता है कि मैं तो जानने वाला हूँ, सिर्फ अपनी जाननक्रिया का मालिक हूँ-शुभ भावों को भी मात्र जानता हूँ, अशुभ भावों को भी मात्र जानता हूँ; इन दोनों का ही मैं करने वाला नहीं हूँ, ये तो कर्म-जनित हैं। जैसे कि एक त्रिकोण (Triangle) है जिसमें ऊपरी सिरे पर शीर्ष पर, ज्ञान है, तथा निचले दो सिरों में से एक पर शुभ भाव और दूसरे पर अशुभ भाव हैं। ज्ञान अथवा ज्ञाता शुभ-अशुभ दोनों भावों से भिन्न स्तर पर है, ऊपर का स्तर 'स्व' का है और निचला स्तर 'पर' का है। ज्ञान उन शुभ व अशुभ भावों को जानता तो है, परन्तु उनसे भिन्न है और उनका कर्त्ता भी नहीं है । जब यह इस प्रकार देखता है। तो शुभ-अशुभ भावों के होते रहने पर भी उनका अहंकार नहीं रह जाता; चाहे दया के या सत्यभाषण के परिणाम हों अथवा असत्यभाषण आदि के, परन्तु उनमें अपनापना, अहम्पना नहीं रहता – अहम् मर जाता है, और जिसका अहम् चला गया उसका संसार ही चला जाता है । संसार में जो रस है वह अहम्पने का और मेरेपने का ही तो है, जिसका अहम्पना और मेरापना चला गया उसके लिए संसार में कोई रस रहा ही नहीं। इसी प्रकार शरीर में भी इसके कोई अहम्पना नहीं रहता; यह भलीभाँति समझता है कि शरीर की नाना प्रकार जो अवस्थायें हो रही हैं वे सब कर्मजनित हैं, मैं तो उनका मात्र जानने वाला हूँ, उन रूप नहीं । जिस प्रकार किसी दूसरे के शरीर को मैं जानता हूँ, उसका कर्त्ता भोक्ता नहीं हूँ, उसी प्रकार जिस शरीर में मैं बैठा हूँ, उसे भी पर रूप से ही जान रहा हूँ, उसका भी कर्त्ता या भोक्ता मैं नहीं - इस शरीर और दूसरे शरीर, दोनों के परपने में कोई अन्तर (38)

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