Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 36
________________ उसका कहीं भी जाना हमारी जानकारी में हो, बेहोशी में नहीं तो हम पायेंगे कि यह मन कहीं भी नहीं जा रहा है, यह तो अब सरकता ही नहीं। यदि हमने धैर्यपूर्वक अभ्यास चालू रखा, देखने-जानने वाले पर जोर देते गये, तो पायेंगे कि कभी-कभी कुछ होने लगता है, मानो बरसात की फुहार का एक झोंका-सा आया हो-एक क्षण के लिए सब शून्य हो जाता है, निर्विचार हो जाता है, निर्विकार हो जाता है, एक अभूतपूर्व शान्ति छा जाती है। यदि ऐसा हुआ तो चाभी मिल गई कि विकल्प-रहित हुआ जा सकता है। और, जो एक क्षण के लिए हो सकता है वह एक मिनट के लिए, एक घन्टे के लिए, एक दिन के लिए व हमेशा के लिए क्यों नहीं ? पहले बूंद-बूंद बरसेगा, फिर एक दिन तूफान आ जाएगा, बाढ़ आ जाएगी। तब वह घटित होगा जो आज तक कभी नहीं हुआ था। मालूम होगा कि भीतर कोई जगा हुआ है; बाहर में सोये हुए भी वह जगा हुआ मालूम देगा, चलते हुए भी अनचला मालूम देगा, बोलते हुए भी अनबोला प्रतीत होगा। बाहर में सारी क्रियायें होंगी परन्तु उसमें कुछ भी होता न मालूम होगा। जैसे ही हम जगे, सावधान हुए, मात्र जानने वाला बने, वैसे ही पायेंगे कि मन गया और शान्ति आई। हमारा संसार हमारे मन में है। जब तक मन के विचारों में हमें रस आ रहा है उनमें हमने अपनापना मान रखा है, तब तक ही उन्हें बल मिल रहा है। जैसे ही हम विचारों को स्वयं से भिन्न-देखेंगे, वैसे ही हम उस ज्ञाताके, आत्मा के सम्मुख हो जायेंगे, सारे विचार-विकल्प गायब हो जायेंगे, सब शून्य हो जाएगा और मात्र एक जानने वाला, ज्ञाता रह जाएगा तभी अपना दर्शन, आत्म-दर्शन होगा, तभी राग-द्वेष और शरीरादि से भिन्न अपने स्वभाव का अनुभव होगा। स्वानुभव स्वानुभव के लिये सबसे पहले बुद्धि के स्तर पर अपने चैतन्य-स्वभाव को शरीर से, शरीर-संबंधी पदार्थों-स्त्री-पुत्रादिक और धन-सम्पत्ति आदि-से, शुभ-अशुभ विकारी भावों-विचारों-विकल्पों से, और मोहादिक आठ प्रकार के कर्मों से भिन्न, अलग, न्यारा निर्णय करना है। जिस प्रकार एक व्यापारी अपने खाता-पत्र को जाँच कर, जोड़-घटा करके, बाकी निकालता है; उस (३६)

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