Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 10
________________ इसलिए उनमें न तो पारस्परिक तुलना का ही कोई प्रश्न उठ सकता है और न ही किसी प्रकार की ईर्ष्या या अभिमान के पैदा होने का प्रसंग प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार स्वयं को चैतन्य - रूप अनुभव करने पर किसी प्रका की कषाय पैदा होने का, राग-द्वेष होने का, कोई कारण ही नहीं रह जाता । दुख के मौलिक कारण राग-द्वेष शरीर में अर्थात् 'पर' में अपनापना मानने से पैदा होते हैं और निज आत्मा को निजरूप अनुभव करने से मिटते हैं। यह नियम गणित के “दो जमा दो बराबर चार” के नियम की तरह सुस्पष्ट है, इसमें संशय अथवा रहस्य की कोई गुंजाइश ही नहीं है । अब तक की चर्चा का सारांश निकलता है कि दो बातें जाननी जरूरी हैं - एक तो यह कि दुख राग-द्वेष की वजह से है, पर पदार्थों की वजह से नहीं । और दूसरी यह कि अपने चैतन्य को पहचाने बिना शरीर में अपनापना नहीं मिट सकता, शरीर में अपनापना मिटे बिना राग-द्वेष नहीं मिट सकता, और राग-द्वेष मिटे बिना यह जीव कभी सुखी नहीं हो सकता। इस जीव को एक ही रोग है, "राग और द्वेष'; और सभी जीवों के लिए - चाहे वे किसी को भी मानने वाले क्यों न हों - दवा भी एक ही है, शरीर और कर्मफल से भिन्न अपने को चैतन्य रूप अनुभव करना जिससे राग-द्वेष का अभाव हो । लोक में भी देखा जाता है कि जिन लोगों को अथवा जिन चीज़ों को हम अपनी नहीं देखते - जानते हैं, उनके लाभ-हानि, जीवन-मरण को जानने पर भी हमें कोई सुख-दुख नहीं होता । वहाँ चूंकि हमें अपनी चीज़ की पहचान है अतः वे पर रूप दिखाई देती हैं, अपनी नहीं । इसी प्रकार, यदि शरीरादि से भिन्न निज - आत्मा का ज्ञान हमें उसी ढंग का हो जाता तो शरीरादि भी पररूप दिखाई देने लगते, तब उनमें भी सुख - दुख, राग-द्वेष नहीं होता। जब शरीरादि ही पर - रूप दिखाई देते, तब शरीर से सम्बन्धित अन्य पदार्थ - स्त्री -पुत्रादि अथवा धन-सम्पत्ति आदि - तो अपने आप ही पर हो जाते, अंत: उनके संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद होने का तो प्रश्न ही न उठता ! राग-द्वेष का अभाव ही वास्तविक सुख है । राग-द्वेष का अभाव कैसे हो ? उनके अभाव के हेतु निज चैतन्य को किस प्रकार पहचाना जाये ? अब इस बारे में विस्तार से विचार करना है । 7201

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