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में ही वृद्धि होती रही है। अब हमें यदि द्रव्य-सामान्य का ज्ञान हो जाये, तो पर्याय विशेष में एकत्व, अपनापना, अहम्पना मिट कर द्रव्यपर्यायात्मक सामान्यविशेषात्मक जैसी वस्तु है-जैसा कि उसका सम्यक् स्वरूप है-उसकी वैसी ही श्रद्धा/प्रतीति हो जाये। तब शरीर तो रहेगा, परन्तु हमें विनाशी और संयोगी प्रतिभासित होगा-जैसा कि यह वस्तुत: है। रागादिक भी होंगे, परन्तु आत्मा के अपने स्वभाव-रूप न दिखाई देकर विकार-रूप तथा नाशवान दिखाई देंगे-जैसे कि ये वास्तव में हैं। तब रागादिक तथा शरीरादि के अभाव में मुझ आत्मा का अभाव नहीं हो सकता, ऐसा स्पष्ट निर्णय घटित होगा।
जब स्वयं को पर्यायरूप अथवा शरीरादि/रागादि-रूप अनुभव करता था, तो राग बढ़ता था; अब यदि स्वयं को द्रव्यस्वभावरूप अनुभव करने लगता है, तो रागादि में कमी होने लगती है और आत्मा क्रमश: रागादि से रहित होकर शद्ध हो जाता है. साथ-ही-साथ शरीरादि की उत्पत्ति के कारणभूत कर्म का भी अभाव हो जाता है। आत्मोन्नति के इस मार्ग की शुरुआत भी तभी संभव है जबकि द्रव्यपर्यायात्मक/सामान्यविशेषात्मक वस्तुस्वरूप की अविकल, अनैकांतिक श्रद्धा हो, पर्याय विशेष को गौण करके द्रव्य-स्वभाव/वस्तु-सामान्य को मुख्य करे और अपने को उस-रूप अनुभव करे-तभी आत्म-अनुभव फलित हो सकेगा। अत: वस्तु के सामान्यविशेषात्मक स्वरूप को जानना न केवल महत्वपूर्ण है, अपितु नितान्त आवश्यक है।
सामान्य-विशेष को समझाने की प्रतीकात्मक शैली चैतन्य-सामान्य को पहचाने बिना धर्म की शुरुआत सम्भव नहीं, यह निश्चित है। परन्तु विशेषों में ही उलझे रहने के कारण, उन्हीं में अपनत्वबुद्धि होने के कारण हम संसारी जीवों के लिए उस चैतन्य को पकड़ पाना मुश्किल लग रहा है। ऊपर दिये गये पुद्गल-सम्बन्धी उदाहरणों में स्वर्णपना, गोरसपना, मिट्टीपना आदि सामान्यों को पकड़ पाना तो आसान है, परन्तु देव-मनुष्य आदि बाह्य पर्यायों और क्रोधादिक अंतरंग परिणामों के परे, उनसे विलक्षण उस चेतन-सामान्य तक पहुँच पाना हमारे लिए कठिन
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