Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 25
________________ से आत्मा छिन्न-भिन्न नहीं होती, और शरीर का नाश होने से आत्मा का नाश नहीं होता। शरीर अचेतन है, उसमें जानने की शक्ति नहीं होती, परन्तु जानने की शक्ति वाला चैतन्य-पदार्थ शरीर के माध्यम से-आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा के माध्यम से-बाह्य पदार्थों को जानता है। जानने वाली आँखें नहीं, बल्कि जैसे “चश्मे के माध्यम से आँखे देखती हैं' ऐसा लोक में माना जाता है, वैसे वस्तुत: आँखों के माध्यम से आत्मा जानती है। जानने वाला तो वह चैतन्य ही है, शरीर नहीं। शरीर तो केवल एक माध्यम है और वह माध्यम भी मात्र बाह्य पदार्थों, परपदार्थों के जानने में ही है। जब यह चैतन्य स्वयं को जानने में प्रयुक्त होता है तो उस माध्यम का भी कोई कार्य नहीं रह जाता। स्वयं को शरीर से भिन्न, चैतन्य-रूप देखने के लिये किसी अन्य पदार्थ की सहायता नहीं चाहिये। परपदार्थों को जानने के लिये तो इन्द्रियों की और प्रकाशादि अन्य साधनों की जरूरत है, क्योंकि यह जानना बाहर की तरफ का है। परन्तु, आत्म-अनुभव करने में न तो प्रकाशादि की आवश्यकता है और न इन्द्रियों की. क्योंकि यह जानना भीतर में ही है। स्वयं को जानने के लिये हमें बाहर की ओर से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। मान लीजिये कि लोहे का एक पुतला, अग्नि से तप्त किया हुआ, एक बक्स में बंद है। यदि कोई व्यक्ति उसको देखे तो सबसे पहले उसकी भेंट बक्स से होगी, फिर तप्तपने (गर्मपने) से; लौहपने से तो उसकी भेंट सबसे अंत में होगी। परन्तु, यदि पुतले में ज्ञानशक्ति हो और वह स्वयं को अपने-रूप से देखना चाहे तो सर्वप्रथम वह अपने को लौह-रूप ही देखेगा। उसको दूसरे दर्शकों के समान, स्वयं तक बाहर की तरफ से पहुँचने की जरूरत नहीं है। इसी प्रकार जब यह आत्मा स्वयं को स्वयं-रूप अनुभव करता है, तब वह अनुभवन किया अंतरंग में ही होती है—शरीर और रागादि भाव तो बाहर ही रह जाते हैं। इन्द्रियादिक की भी कोई दरकार नहीं होती-अंधा व्यक्ति भी अपने को उसी प्रकार चैतन्य-रूप अनुभव कर सकता है जिस प्रकार कि नेत्रवान। इसके विपरीत, जब हम स्वयं को शरीर-रूप देखते हैं तो हमारी दृष्टि भी वैसी ही होती है जैसी पुतला देखने वाले की थी—पहले शरीर से भेंट होती (२५)

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