Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 24
________________ भाँति ही आत्मा में भी जाननपना और राग-द्वेष (शुभ-अशुभ भाव) एक साथ होते हुए भी जाननपना तो स्वयं चेतन का है जबकि राग-द्वेष वस्तुत: मोहकर्म के सम्बन्ध से आ रहे हैं। राग-द्वेष के अभाव में भी आत्मा का अभाव नहीं होता इसलिए राग-द्वेष आत्मा में होते हुए भी वे आत्मा के स्वभाव नहीं हो सकते। आत्मा का स्वभाव तो जाननपना मात्र है जो आत्मा में सदाकाल विद्यमान रहता है। जाननपना या ज्ञायकपना ही स्वयं को जानने वाला है। परन्तु अनादिकाल से वह ज्ञायक स्वयं को ज्ञानरूप अनुभव न करके रागद्वेषरूप अनुभव कर रहा है। आचार्य करुणावश उसी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि राग-द्वेषरूप तू नहीं है, शरीर-रूप भी तू नहीं है, तू तो मात्र चैतन्य है। फिर तू स्वयं को चैतन्यरूप अनुभव न करके राग-द्वेषरूप क्यों अनुभव कर रहा है ? ये राग-द्वेष तो परकृत कार्य हैं, तेरे स्वभाव तो हैं नहीं। फिर तू इनसे भिन्न अपने ज्ञायक स्वभाव का अनुभव क्यों नहीं करता जैसा कि तू वस्तुत: है। आत्मा का शरीर से सम्बन्ध राग-द्वेषरूपी विकारों से भिन्न होने के साथ ही यह आत्मा शरीर से भी भिन्न है जैसे कि ऊपर दिये गये दृष्टान्त में चीनी बर्तन से भिन्न है; अथवा जैसे तलवार म्यान से भिन्न है-चाँदी की तलवार कही जाने पर भी वस्तुतः तलवार चाँदी की नहीं है, वह तो लोहे की ही है, केवल म्यान चाँदी की है। शरीर और आत्मा का एक साथ संयोग होते हुए भी वे दोनों कभी भी एक नहीं होते। दोनों के लक्षण अलग-अलग हैं। आत्मा का लक्षण जाननपना है जबकि शरीर पौद्गलिक है, स्पर्श-रस-गंध-वर्ण गुणों वाला है, अचेतन है। मान लीजिए कि किसी व्यक्ति का दुर्घटनावश एक हाथ कट जाता है और वह उसके सामने पड़ा है। वह हाथ तो जानने की शक्ति से रहित है परन्तु जानने वाला उसको जान रहा है। हम यह प्रत्यक्ष में देखते हैं कि मुर्दा पड़ा रह जाता है जबकि जानने वाला पदार्थ निकल कर चला जाता है। आत्मा के साथ शरीर का सम्बन्ध उसी प्रकार का है जैसा कि शरीर के साथ कपड़े का है। जिस प्रकार कपड़े के मैला होने से शरीर मैला नहीं होता, कपड़े के फटने से शरीर नहीं फटता, और कपड़े के नाश से शरीर का नाश नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के मैला होने से आत्मा मैली नहीं होती, शरीर के कटने-फटने (०४)

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