Book Title: Parmatma hone ka Vigyana
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Dariyaganj Shastra Sabha

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Page 17
________________ हो रहा है। अपनी वर्तमान स्थिति में हम 'विशेषों' के तो नजदीक खड़े हैं और 'सामान्य' हमसे दूर, बहुत दूर है । अत: यह अनुचित नहीं होगा कि हम विशेषों को 'यह' और सामान्य को 'वह' द्वारा अभिव्यक्त करें, और तब इस प्रतीकात्मक शैली में पूर्ण वस्तु की अभिव्यक्ति होगी 'यह + वह' द्वारा । जो उंगली से दिखाया जा सके, जिसकी ओर इशारा किया जा सके, वह तो 'यह' है । और जो देखा तो न जा सके परन्तु जिसकी सत्ता हो, जो जाना न जा सके परन्तु जिसका अस्तित्व हो, जो विद्यमान हो, वह 'वह' है। विज्ञान जिसे जान सकता है वह 'यह' है, जिसे विज्ञान नहीं जान सकता वह 'वह' है । विज्ञान का सम्बन्ध 'इस' से है और धर्म का सम्बन्ध 'उस' से है। इसी वजह से विज्ञान और धर्म का कोई भी मिलान नहीं है। 'यह' 'वह' नहीं हो सकता और 'वह' 'यह' नहीं हो सकता, फिर भी वे दोनों अलग नहीं हैं। 'यह' बहुत निकट है, 'वह' बहुत दूर है। 'यह' बुद्धि के द्वारा, मन के द्वारा, इन्द्रियों के द्वारा जाना जा सकता है। 'वह' अनुभव में आता है, परन्तु व्यक्त करते ही शब्दों का जामा पहनाये जाते ही 'यह' हो जाता है। यहाँ तक कि उसको कोई नाम देते ही वह 'यह' हो जाता है। ज्ञान की सीमा होती है परन्तु अनुभव निस्सीम होता है। 'वह' निकटतम भी है और सबसे दूर भी है। पूर्ण वस्तु यदि एक वृत्त है, सर्कल (Circle) है तो 'वह' है केन्द्र और 'यह' है परिधि । केन्द्र एक बिन्दु रूप है और परिधि है एक अन्तहीन चक्कर | धर्म कहता है कि तुम 'वह' ही हो। कोई यात्रा की दरकार नहीं है। तुम यहीं और अभी 'उसे' पा सकते हो। अगर 'इस' का अतिक्रमण करो तो 'उस' में होंगे। केन्द्र पर जाने के लिए परिधि का अतिक्रमण करना होगा। केन्द्र परिधि नहीं है, यदि परिधि होती तो अब तक पहुँच जाते । परन्तु परिधि पर दौड़ो तो भी केन्द्र पर नहीं पहुँच सकते। उसके लिए तो केन्द्र की ओर मुँह करके छलाँग लगानी पड़ेगी। यही कारण है कि ऊँचे से ऊँचा और ऊँचे से ऊँचा अध्ययन, जो कि परिधि के ही हिस्से हैं, आत्म-स्वरूप रूपी केन्द्र पर नहीं पहुँचा सकते; केन्द्र के लिये तो परिधि से छलाँग लगाना जरूरी है। आचरण, जिसका कोई नाम है वह 'यह' है। जैसे आप पुरुष हैं, स्त्री हैं- ये भी नाम हैं। लेबल लगाना मात्र परिधि है। कोई केन्द्र है जो बिना नाम का है। ( १७ )

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