Book Title: Pariksha Mukham Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha View full book textPage 3
________________ सनातनजैनग्रंथमालायांस्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं ॥१॥ हिंदी-अपना और अपूर्व (जो पूर्वमें किसी भी प्रमाणसे निश्चित न हो ऐसे ) पदार्थका निश्चय करानेवाला ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) प्रमाण है ॥ १॥ बंगला-स्वीय एवं अपूर्वपदार्थेर ( याहा पूर्वे कोनओ प्रमाणद्वारा सिद्ध हय नाइ) निश्चयबोधक ज्ञानके ( सम्यग्ज्ञानके ) प्रमाण बले ॥१॥ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं, ततो ज्ञानमेव तत।२। हिंदी-प्रमाण ही हितकी प्राप्ति और अहितके परिहार करनेमें समर्थ है, इसलिये ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है । अज्ञानस्वरूप सन्निकर्षादि प्रमाण नहिं होते ॥ २ ॥ बंगला-प्रमाणइ हितेर प्राप्ति ओ अहितेर परिहार करिते समर्थ, अतएव ज्ञानइ प्रमाण हइते पारे, अज्ञानस्वरूप सन्निकर्षादि प्रमाण हइते पारे ना ॥ २ ॥ तनिश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥३॥ हिंदी-वह प्रमाण (सम्यग्ज्ञान ) समारोपका (संशय विपर्यय अनध्यवसायका) विरोधी होनेसे बौद्धोंद्वारा मानेहुये अनुमानकी तरह निश्चयात्मक है ।। ३ ॥ वंगला-उक्त प्रणाण समारोपेर (संशय विपर्यय अनध्यबसायेर) विरोधी । अतएव बुद्धकथित अनुमानसदृश निश्चयकारक ॥ ३ ॥ विरुद्ध अनेक कोटिर अवलंबनकारक ज्ञानके संशय बले यथा- · एइ सीप किं रूपा'। विपरीत ज्ञानके विपर्यय बले यथा-सीपके रूपा बला। रास्ताय चलिबरा समय तृणप्रमृतिर स्पर्शादि हइले ‘किछु आछे' एइप्रकार ज्ञानके अनध्यवसाय बाहय ।Page Navigation
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