Book Title: Pandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Author(s): Pandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publisher: Pandit Sukhlalji Sanman Samiti

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Page 18
________________ : १४ : पंडित सुखलालजी (२) ऐतिहासिक दृष्टि यानी सत्यशोधक दृष्टि - किसी भी तथ्यका उपयोग अपने मान्य मतको सत्य सिद्ध करनेके हेतु नहीं, पर उस मतके सत्यस्वरूपका साक्षात्कार करनेके लिये ही होना चाहिये । (३) तुलनात्मक दृष्टि — किसी भी ग्रन्थके निर्माण में कई प्रेरक वलोंने कार्य किया होता है । इसीके साथ उस ग्रन्थ पर पूर्वकालीन या समकालीन ग्रन्थोंका प्रभाव होता है तथा उसमें अनेक अन्य उद्धरणोंके समाविष्ट होनेकी संभावना रहती है । इसके अतिरिक्त समान विषयके ग्रन्थों में, भाषा-भेदके होते हुए भी, विषय - निरूपणकी कुछ समानता अवश्य रहती है । इसलिये जिस व्यक्तिको सत्यकी खोज करनी है, उसे तुलनात्मक अध्ययनको अपनाना चाहिये । पंडितजीने उपर्युक्त पद्धति से ग्रन्थ - रचना कर कई सांप्रदायिक रूढ़ियों और मान्यताओंको छिन्न-भिन्न कर दिया | कई नई स्थापनाएँ और मान्यताएँ प्रस्तुत कीं । इसलिये वे एक ओर समर्थ विद्वानोंके प्रीतिपात्र वने, तो दूसरी ओर पुराने रूढ़िवादियोंके कोपभाजन भी वने । पंडितजी संस्कृत, प्राकृत, पाली, गुजराती, हिन्दी, मराठी, अंग्रेज़ी आदि अनेक भाषाओंके ज्ञाता हैं । गुजराती, हिन्दी और संस्कृत में उन्होंने ग्रन्थरचना की है । प्रारंभ में पंडितजी प्रस्तावना, टिप्पणियाँ आदि संस्कृतमें लिखवाते थे, किन्तु बादमें गुजराती और हिंदी जैसी लोकसुगम भाषाओं में लिखनेका आग्रह रखा । जव किसी विषय पर लिखना होता है, तब पंडितजी तत्संबंधी कई ग्रन्थ पढ़वाते हैं, सुनते सुनते कई महत्त्वके उद्धरण नोट करवाते हैं और कुछ को याद भी रख लेते हैं । उसके बाद एकाग्र होकर स्वस्थतापूर्वक धाराप्रवाही रूपसे ग्रन्थ लिखवाते हैं । उनकी स्मरणशक्ति, कुशाग्र बुद्धि और विभिन्न विषयों को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करनेकी असाधारण क्षमता देखकर आश्चर्य होता है । पंडितजीका मुख्य विषय है : भारतीय दर्शनशास्त्र, और उसमें भी वे जैन-दर्शनके विशेषज्ञ हैं । उन्होंने सभी दर्शनोंके मूल तत्त्वोंका एक सच्चे अभ्यासीके रूप में अभ्यास किया है । इसीलिए वे उनकी तात्त्विक मान्यताओंको जड़ - मूलसे पकड़ सकते हैं। आज जवकि हमारे सामान्य पंडितोंको भारतीय दर्शनों में परस्पर विभेद नज़र आता हैं, पंडितजीको उनमें समन्वय - साधक अभेद-तत्त्व दृष्टिगोचर होता है । इस प्रकार सर्व भारतीय दर्शनोंके मध्य समन्वयवादी दृष्टिकोणकी स्थापना ही दर्शनके क्षेत्रमें पंडितजी की मौलिक देन है । आज तो वे भारतीय दर्शन ही नहीं, संसार के सभी दर्शनों में समन्वय

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