Book Title: Pandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Author(s): Pandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publisher: Pandit Sukhlalji Sanman Samiti

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Page 68
________________ पं० सुखलालजीके कायिक नेत्र बन्द रहे, पर समाज और राष्ट्रका कोई प्रश्न नहीं है जिस पर वे हममें से कइयोंसे अधिक न देख पाते हों । और केवल देख पानेकी ही बात नहीं, वे उन प्रश्नोंके समाधान के लिये विचार देते हैं और जिन विचारोंसे समाधान हो सकता है, उन विचारोंका अगर पुराने धर्म और शास्त्र विचारोंसे मेल नहीं बैठता, तो वे पुराने विचारोंके कैदी न बनकर नए विचारोंके विद्रोही बन जाते हैं । वे चाहे कर्मग्रन्थकी व्याख्या करें, चाहे प्रमाणमीमांसाका विवेचन करें और चाहे उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्र के विषयका प्रतिपादन करें, जीवनदृष्टि वही रहती है, जो युगको पहचानती है और युगकी समस्याओंके समाधान में मदद देती है । दूसरे लोग इस सबके भाष्यकार तो हैं, पर उनके विवेचन में यह युगदृष्टि नहीं है; इसलिए वे उन ग्रन्थोंकी व्याख्या तो कर देते हैं और बहुत पांडित्यपूर्ण व्याख्या वह होती है, पर उसमें द्रष्टा और स्रष्टाकी प्रेरक जीवनदृष्टि नहीं हो पाती । जवकि सुखलालजी प्राचीनसे प्राचीन शास्त्रका भाष्य करते हुए भी इस युगदृष्टिको सन्मुख रखते हैं, दूसरे लोग प्राचीनताकी चहारदीवारीमें चक्कर लगाते रहते हैं । इसलिये जबकि दूसरे लोग निर्दोष व्याख्याकार मात्र रह कर निभ जाते हैं, पंडितजीके भाष्य में विचारोंकी वह प्रखरता आ जाती है जो शास्त्रके दूकानदारोंको जल्दीसे वर्दाश्त नहीं होती । वे शास्त्रोंके अनन्य भक्त और पुजारी होते हुए भी उन्हीं शास्त्रोंके भाष्यकार पं० सुखलालजीको अपनेसे अलग ही नहीं, विरोधी और विद्रोही मानते हैं । हालां कि धर्म और शास्त्रका भी उन्होंने जितना उद्धार किया, उतना और किसीने नहीं किया, परंतु उन्हींको सबसे ज़्यादा विरोध और निन्दा या लांछनाका शिकार बनना पड़ा है, परंतु पंडितजीके खुदके ही शब्दों में, 'जव स्वच्छ दृष्टिसे कुछ कर्तव्य सूझता है, तव वह बिना किसीकी खुशी या नाराजीका ख्याल किए उसकी ओर दौड़ता है । वह केवल भूतकाल से प्रसन्न नहीं होता; दूसरे जो प्रयत्न करते हैं, उन्हींकी तरफ़ बैठे देखना पसन्द नहीं करता ।.... उसका सिद्धान्त यही रहता है कि धर्मका नाम मिले या न मिले, किसीके लिये भी सर्वहितकारी एवं सर्वकल्याणका ही कार्य करना चाहिए । ' यह सिद्धान्त और इसके आधार पर, वनी हुई जीवनदृष्टि ही पंडितजीके जीवनका सर्वस्त्र रहा है। उन्होंने अपने वारेमें लिखते हुए ठीक ही कहा है' इस दीर्घकालीन शास्त्रीय और व्यावहारिक कार्यके यज्ञके केन्द्रमें तो उत्कट जिज्ञासा एवं सत्यशोधनकी वृत्ति ही रही है । इसीकी प्रेरणासे मुझे अनेक सत्पुरुषोंसे मिलने का सौभाग्य मिला, इसीने मुझे पन्थ अथवा सम्प्रदायके संकुचित ४०

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