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दृष्टिविहीन द्रष्टा !
श्री भंवरमल सिंघी एम. ए., साहित्यरत्न
हमारे आँखें हैं जिनसे हम हर रोज, हर घड़ी दुनियाको देखते हैं और जो छाप देखी हुई वस्तुओं की हम पर पड़ती है, उससे हमारे मनन और चिन्तन में बड़ी सहायता प्राप्त होती है, परन्तु हम गंभीरता से सोचें और जीवनदृष्टि और जीवनके चिन्तनकी कसौटी पर अपने आपको कसें तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि हममेंसे बहुत कमको सच्ची जीवनदृष्टि प्राप्त हो पाती है । हम देखते हैं, पर देख नहीं पाते; हमारे आँखें हैं, पर उनकी पहुँच वहां तक नहीं है, जहाँसे जीवन- आलोक आ रहा है । हम अंधे नहीं हैं, पर हमारी जीवनदृष्टि अंधी है । और पं० सुखलालजी आँखोंसे अंधे हैं, पर उनकी जीवनदृष्टि कितनी तीव्र और प्रखर है ! विद्याध्ययनका वास्तविक क्रम प्रारंभ किया, उस वक्त तक तो उनकी नेत्रज्योति जा चुकी थी, परंतु दृष्टि खोकर वे तो एक महान् द्रष्टा वन गये । विचार और चिन्तनके जिन क्षेत्रों में और जिन क्षितिजों पर सही-सलामत आँखोंवाले नहीं पहुंच पाते, वहाँ तक उनकी प्रज्ञाके चक्षु पूरी तरह खुले हुए हैं और वह प्रज्ञा-दृष्टि व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और मानव-जातिके हर प्रश्नकी तह तक पहुँच जाती है । और नेत्रविहीन वह दृष्टि केवल अतीत में कारावद्ध नहीं, केवल वर्तमान में सीमित नहीं, वह एक सच्चे समाज - द्रष्टा की तरह भविष्य के अंतराल तक पहुँचती है । इसीलिये मैंने उनको हमेशा एक बहुत बड़ा पण्डित ही नहीं, विचारक ही नहीं, सन्त ही नहीं, युगद्रष्टा भी माना; क्योंकि मैं सुप्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक स्पॅगलरके इस कथंनको बहुत सही मानता हूँ कि ' किसी विचारककी महत्ता के मूल्यांकनकी कसौटी मेरी समझमें उसके समकालीन युगके महान् तथ्यों और प्रश्नोंके बारेमें उसकी अपनी दृष्टि है ।'
स्पेंगलर ही क्यों, दुनियाके बहुत सारे दूसरे विचारकोंने भी इसी वातको सत्य माना है, एवं जोर के साथ कहा है कि जो विचारक और दार्शनिक अपने समकालीन युगकी समस्याओंको समझ नहीं पाता तथा उनको हल करनेका मार्ग नहीं बता पाता, उसके विचार सारी दार्शनिकताके बावजूद कौड़ी कामके नहीं होते; वह एक बन्द पुस्तककी भाँति ही रह जाते हैं, जिसका संग्रहालय में रखे जानेसे अधिक कोई मूल्य नहीं होता । ऐसे विचारककी आँखें जीवन के समकालीन तथ्यों और प्रश्नोंके प्रति वन्द रहती हैं । वह पंडित तो जरूर हो सकता है, पर द्रष्टा या खष्टा नहीं हो सकता ।
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