Book Title: Pandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Author(s): Pandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publisher: Pandit Sukhlalji Sanman Samiti

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Page 65
________________ यही निरपेक्ष वृत्ति उनके जीवनका सहज परिपाक है जिसे वे अत्यन्त शारीरिक पराधीनताके रहते हुए भी बढ़ाते चले जाते हैं। एक दिन उन्होंने अपने जीवनके आनन्दका निचोड़ बताते हुए कहा कि मेरे इतने सहज मित्र और इतनी दयामूर्ति भगिनियों का मंडल बन गया है कि उनके मनके एक मृदु कोने में भी स्थान बनाकर मैं अपनेको ब्रह्मानन्दीसे कम नहीं मानता । साहित्यसाधनाको वे चरम पुरुषार्थ नहीं मानते। वे कहा करते हैं कि मेरी साहित्यसाधना तो में अपनी परतन्त्र परिस्थितिके कारण ही इस उम्रमें चला रहा हूँ, वस्तुतः रस तो मुझे प्रत्यक्ष रचनात्मक कार्य और मानवसेवामें ही है। मैं कभी कभी अकुला जाता हूँ, पर क्या करूँ ? जब जब भी खाली वैठता हूँ तो सामाजिक और राष्ट्रिय मार्गकी ही बात सदा सोचता हूँ और सदा अपनी नई पीढ़ीकी और आशाभरी अन्तर्दृष्टिसे देखता हूँ कि ये सामाजिक जीवन में विकसित होकर कुछ मानवताके विकासमें योग देंगे। उनके विचार हरक्षेत्रके लिये सुनिश्चित हैं। उनकी यह सीख हमेशा रही है कि जिस क्षेत्रमें जाओ, पूरे मन और पूर्ण शक्तिसे प्रामाणिकतापूर्वक जुटो। जब तक विद्या और साहित्यकी उपासना करनी है तब तक अन्य प्रवृत्तियोंके मार्गको समझो तो, पर उनमें चित्त न वटाओ। मैं जब 'न्यायविनिश्चय' और 'तत्त्वार्थवार्तिक' आदिका सम्पादन कर रहा था तव उन्होंने मुझे एक वाक्य कहा कि-" पंडितजी, विद्याकी गहरी उपासना करनी हो तो किसी संस्थाके संचालक न बनना और वि.सी पत्रके संपादक न बनना।" मैंने समझा कि पंडितजी अपनी शारीरिक परतन्त्रताके कारण शायद ऐसा कह रह हैं, पर मुझे अपने छोटेसे जीवन में इन दोनों सत्योंका ऐसा साक्षात्कार ही नहीं हुआ, किन्तु ऐसा तात्कालिक आघातसा लगा कि मुझे पंडितजीके ये वचन 'उपादानको मजबूत बनाओ और जो हो निर्भयता और निरपेक्षभावसे लिखते चलो। यदि उसमें सत्य है तो प्रचारक अपने आप जुट जायँगे 'यदि मार्गदर्शक न होते तो उन परिस्थितियोंमें चित्तका समाधान होना कठिन था। जैन परम्परामें सम्यग्दर्शनका बड़ा महत्त्व है और सचमुच दृष्टि स्पष्ट हुए विना सारी प्रवृत्तियाँ निरर्थक ही नहीं अनर्थक भी हो जाती हैं। इस दृष्टिको पंडितजीने जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें पूरी तरह प्राप्त किया और ज्ञानके क्षेत्रमें साम्प्रदायिक मताग्रहोंसे मुक्त हों विचार करनेकी उदार परम्पराका बीजवपन किया। सन्मतितर्कका सम्पादन उनकी बहुमुखी प्रज्ञा, बहुश्रुतत्व और उदार दृष्टिका जीताजागता उदाहरण है। दार्शनिक अध्ययनका तो वह कोश ही है।

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