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मैंने उन विरोधियोंकी सदा उपेक्षा की । गुण-ग्रहणकी वृत्ति मेरेमें सदा अच्छी मात्रामें रही है । किसीके अवगुणोंको जानने व मुननेकी इच्छा उतनी नहीं रहती; पर किसी व्यक्तिके गुण और विशेषताओंकी ओर मेरा झुकाव बहुत शीघ्र हो जाता है।
फिर तो मैं पंडितजीके लेख और ग्रन्थ, जिस किसी पत्रमें या जहाँसे प्रकाशित होते प्राप्त करता और उन्हें पढ़कर ज्ञानवृद्धि करनेका प्रयत्न करता रहता। उनके व पं० बेचरदासजीके द्वारा संयुक्त रूपसे संपादित 'सन्मतितर्क टीका के संस्करणकी प्रशंसा तो बहुत मुनी थी, पर संस्कृतका मेरा इतना ज्ञान न होनेसे में उनका स्वयं अनुभव न कर सका, पर जव गुजरातीमें सन्मतितर्क उनके विवेचनके साथ निकला तो उसकी प्रस्तावना ही पढ़कर मुझे लगा कि इस ग्रन्थके टीकावाले संस्करणमें उन्होंने कितना श्रम किया है ! शुद्ध पाठके निर्णय और अर्थके गांभीर्य तक पहुँचने में उनकी चिन्तनशक्तिने कमाल किया है। तत्त्वार्थके हिन्दी विवेचन और 'वेदवादद्वात्रिंशिका 'के पंडितजीके विवेचनको पढ़कर मुझे बहुत आनन्द हुआ। सिद्धसेन दिवाकरकी गांभीर्यपूर्ण द्वात्रिंशिकाओं आदिके हार्द तक पहुँचनेमें पंडितजी जैसे प्रतिभामूर्ति ही सफल हो सकते हैं।
अनेक बार अपने प्रश्नोंका सुन्दर समाधान भी पंडितजीसे पाया। और अपने मित्र व मौलिक प्रतिभासम्पन्न श्री. शुभकरणजी बोथरा आदिको भी पंडितजीके पासमें ले गया। उन सभीको बहुत सन्तोष हुआ। पंडितजीकी सूझबूझ और चिन्तन-शक्तिका अनेक वार परिचय मिला। उनके शिष्य पं. दलमुखभाई, हीराकुमारी आदिको प्रतिभा देखकर भी प्रसन्नता हुई। उनके पास जो भी गये व रहे उन्होंने उन्हें अच्छे रूपमें तैयार कर दिया। अहमदाबादमें में उनसे २-३ बार मिला और उनसे छात्र व छात्राएँ लाभ उठा रही हैं यह देख मुझे बहुत सन्तोष हुआ। उन्होंने लिखा भी काफ़ी है और प्रारम्भसे ही उनका लेखन सुचिन्तित और ज्ञानवर्द्धक रहा है। नये नये विचार उनके सामने आते रहते हैं और वे गम्भीरतासे उन पर विचार कर पचाते रहते हैं। उनका शास्त्र-श्रवण भी बहुत विशाल है। जैन-ग्रन्थों तक सीमित न रहकर उन्होंने भारतीय वैदिक और बौद्ध ग्रन्थोंका भी श्रवण कर उनके रहस्यको पा लिया है और उसे विशाल और व्यापक दृष्टिसे ही अपनी चिन्तनप्रणालीके साथ सभी लेखों और ग्रन्थोंमें व्यक्त किया है। प्रमाणमीमांसा, ज्ञानविन्दु आदिकी टिप्पणियां उनके गंभीर अध्ययन व विशाल ज्ञानाभ्यास और सुचिन्तित लेखनके उज्ज्वल दृष्टान्त है।
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