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पं० सुखलालजी श्री. राहुल सांकृत्यायन
पं० सुखलालजी हमारे तपस्वी विद्याचरणसम्पन्न प्राचीन पंडितोंके प्रतीक हैं | संस्कृत दर्शनके अद्भुत विद्वान् होने पर भी उनकी तीव्र जिज्ञासाको देखकर आश्रय होता है । हर नये ज्ञानको अर्जित करनेके लिये इस वार्धक्य में भी तैयार रहते हैं । वर्षो पहलेकी वात है । रूसके आचार्य रचेत्स्की के "बुद्धिस्ट लाजिक" को पढ़वाकर उन्होंने सुना था । कह रहे थे, उसका हमारी भाषा में अनुवाद होना चाहिये और हरेक संस्कृत के दर्शनाचार्यको उसे पढ़ना चाहिये । तिब्बत में चौद्ध न्यायकी बहुत-सी पुस्तके मुझे मिलीं, जिनके लिये सबसे अधिक प्रसन्नता आचार्य इचेत्स्की और पं० सुखलालजीको हुई । प्रमाणवार्त्तिक भाष्य " को प्रकाशित होनेमें वीस वर्ष लग गये । पहले तो आशा ही नहीं थी कि वह कभी प्रकाशित होगा भी । पंडितजी तब तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे। उन्होंने मेरी उतारी हुई प्रतिको मंगवाकर सारा ग्रन्थ उतरवा लिया |
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मैं पिछले वीस-पच्चीस वर्षोंसे पंडितजी के सम्पर्क में रहा हूँ । उनके सरल और मधुर व्यक्तित्वने और भी मुझे अधिक प्रभावित किया है ।
वह आचार-विचार सबमें अत्यन्त उदार हैं । साम्प्रदायिक संकीर्णता उनसे कोसों दूर रही । अपने समाज द्वारा सुरक्षित निधियोंका उन्हें पूरा अभिमान था, और उनके संरक्षणका प्रयत्न भी करते हैं। पर, उनकी विद्वत्ता उन्हें पूर्ण भारतीय बनाती है । वल्कि कहना चाहिये, वह मानवता के अभिन्न अंग हैं । पुराने विद्वानोंमें इतनी अधिक विचार - सहिष्णुता मैंने नहीं देखी, यद्यपि सभी मत-मतान्तर के महान् ग्रथोंके प्रति आदर और स्नेह मैने दूसरे पंडित में भी देखे हैं ।
पंडितजी हमारे बीच में शतायु होकर रहें और अपनी अपार ज्ञाननिधिसे जिज्ञासुओं और छात्रोंको तृप्त करते रहें ।
मसूरी, २२-२-५७