Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 8
________________ ३४ पञ्चास्तिकाय परिशीलन जो कि उत्पाद - व्यय और ध्रुवत्व से सहित है। द्रव्य के लक्षण में को ग्रहण नहीं किया; क्योंकि 'कालद्रव्य' द्रव्य तो है; पर वह कायवान नहीं है। यदि 'काय' को द्रव्य के लक्षण में शामिल करते तो कालद्रव्य को द्रव्यपना नहीं ठहरता । इसके बाद १२-१३वीं गाथा में गुण और पर्यायों का द्रव्य के साथ भेदाभेद दर्शाया गया है और १४ वीं गाथा में तत्सम्बन्धी सप्तभंगी स्पष्ट की गई है। तदुपरान्त सत् का नाश और असत् का उत्पाद सम्बन्धी स्पष्टीकरण के साथ २०वीं गाथा तक पंचास्तिकायद्रव्यों का सामान्य निरूपण हो जाने के बाद २६वीं गाथा तक कालद्रव्य का निरूपण किया गया है। इसके बाद छह द्रव्यों एवं पंचास्तिकायों का विशेष व्याख्यान आरम्भ होता है। सबसे पहले जीवद्रव्यास्तिकाय का व्याख्यान है, जो अत्यधिक महत्वपूर्ण होने से सर्वाधिक स्थान लिए हुए हैं। यह ७३वीं गाथा तक चलता है। ४७ गाथाओं में फैले इस प्रकरण में आत्मा के स्वरूप को जीवत्व, चेतयित्व, प्रभुत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, देहप्रमाणत्व, अमूर्तत्व और कर्मसंयुक्तत्व के रूप में स्पष्ट किया गया है। उक्त सभी विशेषणों से विशिष्ट आत्मा को संसार और मुक्त ह्न दोनों अवस्थाओं पर घटित करके समझाया गया है। इसके बाद नौ गाथाओं में पुद्गल द्रव्यास्तिकाय का वर्णन है और सात गाथाओं में धर्म-अधर्म दोनों ही द्रव्यास्तिकायों का वर्णन है, तथा सात गाथाओं में ही आकाश द्रव्यास्तिकाय का निरूपण किया गया है। इसके बाद तीन गाथाओं की चूलिका है, जिसमें उक्त पंचास्तिकायों का मूर्तत्व-अमूर्तत्व, चेतनत्व - अचेतनत्व बतलाया गया है। तदनन्तर तीन गाथाओं में कालद्रव्य का वर्णन कर अन्तिम दो गाथाओं में प्रथम श्रुतस्कन्ध अथवा प्रथम महा अधिकार का उपसंहार करके इसके अध्ययन का फल बताया गया है। इसप्रकार एक सौ चार गाथाओं का प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त होता है। (8) प्रस्तावना द्वितीय श्रुतस्कन्ध यह द्वितीय श्रुतस्कन्ध एक सौ पाँच वीं गाथा से आरंभ होता है। यहाँ मंगलाचरण के उपरान्त मोक्ष के मार्गस्वरूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र का निरूपण किया है। इसके बाद नवपदार्थों का वर्णन प्रारंभ होता है, जो कि इस खण्ड का मूल प्रतिपाद्य है। १०९वीं गाथा से जीवपदार्थ का निरूपण आरम्भ होता है और वह १२३वीं गाथा तक चलता है। इसमें सर्वप्रथम जीव के संसारी और मुक्त भेद किये गये हैं। फिर संसारियों के एकेन्द्रियादिक भेदों का वर्णन है । एकेन्द्रिय के वर्णन में विशेष जानने योग्य बात यह है कि इसमें वायुकायिक और अग्निकायिक को त्रस कहा गया है। यह कथन उनकी हलन चलन क्रिया देखकर 'सन्तीति त्रसाः ह्न जो चले-फिरे सो त्रस ह्न इस निरुक्ति के अनुसार ही अर्थ किया गया है। अतः 'द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:' ह्न इस तत्वार्थसूत्रवाली परिभाषा को यहाँ घटित नहीं करना चाहिए। अन्त में सिद्धों की चर्चा है। साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि ये सब कथन व्यवहार का है, निश्चय से ये सब जीव नहीं है। इसका उल्लेख १२१वीं गाथा में इसप्रकार है "इन्द्रियाँ जीव नहीं हैं और पृथ्वीकायादि छह प्रकार की कायें भी जीव नहीं है; उनमें रहनेवाला 'ज्ञान' लक्षणवाला अमूर्त अतीन्द्रिय पदार्थ ही जीव हैं ह्र ज्ञानीजनों द्वारा ऐसी ही प्ररूपणा की जाती है।" १२४वीं गाथा से १२७वीं गाथा तक अजीव पदार्थ का वर्णन है; जिसमें बताया गया है कि सुख-दुःख तथा हित के अहित के ज्ञान से रहित पुद्गल व आकाशादि द्रव्य अजीव हैं। संस्थान, संघात, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णादि गुण व पर्यायें भी पुद्गल की हैं; आत्मा तो इनसे भिन्न अरस, अरूप, अगंध, अशब्द, अव्यक्त, इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य एवं अनिर्दिष्ट संस्थान वाला है।

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