Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ ३२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचार्य अमृतचन्द्र और आचार्य जयसेन जैसे सूक्ष्मदर्शी दो-दो समर्थ टीकाकार जिसकी टीका लिखने के लोभ का संवरण नहीं कर पाये, उस कुन्दकुन्द के मूल प्रतिपाद्य में निःसंदेह कुछ विशेषतायें तो हैं ही, जिन्हें लिखकर टीकाकार द्वय ने पाठकों का मार्ग सुगम किया है। ___ प्रस्तुत पंचास्तिकाय संग्रह में शिवकुमार आदि संक्षेप रुचि वाले प्राथमिक शिष्यों को समझाने के लिए पाँच अस्तिकायों, छहद्रव्यों, सात तत्त्वों एवं नौ पदार्थों का विवेचन किया है। प्रस्तुत पंचास्तिकाय संग्रह' ग्रन्थ पर अनेक टीकायें उपलब्ध हैं ह्र जिनमें आचार्य अमृतचन्द्र की 'समयव्याख्या' टीका तथा दूसरी आचार्य जयसेन की 'तात्पर्यवृत्ति' टीका उन सब टीकाओं में ये दो टीकायें बहुप्रचलित हैं। इन्होंने अपनी टीकाओं में विस्तार से ग्रन्थ का मर्म खोला है। ___आचार्य अमृतचन्द्र ने पंचास्तिकाय को जिन दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित किया है, उसके पूर्व भाग को पीठिका और अन्तिम भाग को चूलिका नाम दिया है। आचार्य अमृतचन्द्र की टीका के अनुसार १७३ गाथायें हैं तथा आचार्य जयसेन की टीका के अनुसार १८१ गाथायें हैं। यहाँ दो स्कन्धों से तात्पर्य दो अलग-अलग प्रकार से विभाजित विषय से हैं। इनसे एक-दूसरे को समझने में सहायता मिलती है। आचार्य जयसेन की टीकाओं में आचार्य अमृतचन्द्र की टीका से जो ८ गाथायें अधिक हैं, वे प्रथम अधिकार में जीवास्तिकाय के वर्णन में गाथा क्रमांक ४३ के बाद ६ गाथायें हैं तथा पुद्गलास्तिकाय के वर्णन में गाथा क्रमांक ७६ के बाद १ तथा द्वितीय अधिकार में व्यवहाररत्नत्रय के स्वरूप वर्णन में गाथा क्रमांक १०६ के बाद १ गाथा आई है। इस ग्रन्थ के स्पष्ट रूप से दो खण्ड हैं, जिन्हें समय व्याख्या टीका में आचार्य अमृतचन्द ने प्रथम श्रुतस्कन्ध एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध नाम दिये हैं। प्रथम खण्ड में द्रव्य स्वरूप के प्रतिपादन द्वारा शुद्ध तत्व का उपदेश दिया है और द्वितीय खण्ड में पदार्थों के भेदों द्वारा शुद्धात्म तत्व की प्राप्ति का मार्ग दिखाया है। प्रस्तावना प्रथम खण्ड के प्रतिपादन का उद्देश्य शुद्धात्मतत्व का सम्यक्ज्ञान कराना हैं और दूसरे खण्ड के प्रतिपादन का उद्देश्य पदार्थों के भेदविज्ञानपूर्वक मुक्ति का मार्ग अर्थात् शुद्धात्मतत्व की प्राप्ति का मार्ग दर्शाना है। उक्त दोनों खण्ड इतने विभक्त हैं कि दो स्वतंत्र ग्रन्थ से प्रतीत होते हैं। दोनों के एक जैसे स्वतंत्र मंगलाचरण किये गये हैं। प्रथमखण्ड समाप्त करते हुए उपसंहार भी इसप्रकार कर दिया गया है कि जैसे ग्रन्थ समाप्त ही हो गया हो। प्रथम खण्ड की समाप्ति पर ग्रन्थ के अध्ययन का फल भी निर्दिष्ट कर दिया गया है। दूसरा खण्ड इसप्रकार आरम्भ किया गया है, मानो ग्रन्थ का ही आरम्भ हो रहा है। दूसरे खण्ड के अन्त में चूलिका के रूप में तत्त्व के परिज्ञानपूर्वक (पंचास्तिकाय, षद्रव्य एवं नवपदार्थों के यथार्थ ज्ञानपूर्वक) सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र की एकतारूप से उत्तम मोक्षप्राप्ति कही है। तात्पर्यवृत्तिकार आचार्य जयसेन इस ग्रन्थ को तीन महा-अधिकारों में विभक्त करते हैं। आचार्य जयसेन द्वारा विभाजित प्रथम महा अधिकार तो आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा विभाजित प्रथम श्रुतस्कन्ध के अनुसार ही है। अमृतचन्द्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध को जयसेनाचार्य ने द्वितीय एवं तृतीय ह्न ऐसे दो महाधिकारों में विभक्त कर दिया है। उसमें भी कोई विशेष बात नहीं है। बात मात्र इतनी ही है कि जिसे अमृतचन्द्र 'मोक्षमार्गप्रपञ्चचूलिका' कहते हैं, उसे ही जयसेनाचार्य तृतीय महा-अधिकार कहते हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में सर्वप्रथम मंगलाचरण के उपरान्त २६ गाथाओं में षद्रव्य एवं पंचास्तिकाय की सामान्य पीठिका दी गई है। उसमें उत्पादव्यय-ध्रौव्य और गुण-पर्यायत्व के कारण अस्तित्व एवं बहुप्रदेशत्व के कारण कायत्व सिद्ध किया गया है। 'अस्तिकाय' शब्द अस्तित्व और कायत्व का द्योतक है। अस्तित्व को सत्ता या सत् भी कहते हैं। यही 'सत्' द्रव्य का लक्षण कहा गया है, (7)

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 264