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वक्तव्य
श्री १००८ वर्धमान वीर भगवान के सिद्ध होजाने के लगभग ६०० छह सौ वर्ष बीत जाने पर मगध विहार में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और जो महाव्रती निर्मथ साधु उस दुर्भिक्ष के संकट से बचने के लिये सुभिक्ष देश दक्षिण में विहार कर गये, वे तो अपने अठाईस मूल गुणों को श्री वीरवाणी के अनुसार निर्दोष पालन करने में समर्थ हुए और जो मगध में ही रह गये वे अति भयंकर दुर्भिक्ष की मार न सह सके और निग्रंथ से सग्रंथ हो गये। उन्होंने श्रीमहावीर भगवान का उपदिष्ट अचेलकत्व ( दिगम्बरपना छोड दिया, वस्त्र धारण कर लिये तथा वीतराग जिनवाणी में भी मान कषाय वश कुछ परिवर्तन कर शास्त्रों को विकृत कर दिया। ऐसे ही समय में आचार्य कुन्दकुन्द देव का आविर्भाव हुआ और उन्होंने अपने ज्ञान और तपके प्रभाव से महावीर भगवान के मूल उपदिष्ट धर्मका अध्ययन किया, टक्षिण से उता लिहार कर दिगम्बर जैन धर्मका प्रसार किया। उस समय की प्रचलित भाषा प्राकृत में अनेक ग्रंथोंकी रचना श्रीमहावीर भगवान की दिव्यध्वनि अनुसार की।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण कर भव्यजन अपना कल्याण कर परमात्मा बन सकें इसलिये समयप्रामृत, पंचास्तिकाय संग्रह ( प्राभृत ) प्रवचनसार इन तीन ग्रंथोंकी प्रधानतया रचना की तथा इनके सहायक अन्य प्राभृतों ( मोख पाहुड-मोक्ष प्राभृत आदि) की रचना की।
सर्वज्ञ वीतराग ने जिन तत्त्वोंका वर्णन किया है उनका ज्ञान कर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन हैं। कोई मनुष्य जिनेंद्र वाणीका ज्ञान तो कर ले परन्तु उसका श्रद्धान न करे, तो कोई कार्य की सिद्धि नहीं होती, यही कारण है कि-ग्यारह अंग नौ पूर्व तक जिन वाणी का पाठी भी संसार में ही रुलता रहता है और 'तुष माष भित्र मात्र अल्प ज्ञानका श्रद्धानी संसार से पार हो जाता है। इसीलिये तत्त्वज्ञान की श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है।
सर्वज्ञ भगवान के उपदिष्ट तत्त्व कौन-कौन से हैं इसका ज्ञान करना भी आवश्यक है, कारण तत्त्वोंका ज्ञान बिना किये श्रद्धान किसका करे ? अल्पज्ञ कषाययुक्त व्यक्तियों के उपदिष्ट असत् पदार्थोका श्रद्धान करलेने से भी आत्माका हित नहीं होता, आचार्य कुन्दकुन्द देवने इस पंचास्तिकाय प्राभृत में सर्वज्ञ वीतराग भगवान द्वारा उपदिष्ट सात तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और काल द्रव्यका विशद वर्णन किया है।
इसका स्वाध्याय करना सर्वधारण को सुलभ हो जाय और आचार्य का अभिप्राय सही सही समझ में आजाय इसलिये दो संस्कृत टीकाएँ और उसका हिंदी शब्दार्थ इसमें छपाया गया है।
ब्रह्मचारी श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ