Book Title: Oswal Porwal Aur Shreemal Jatiyo Ka Sachitra Prachin Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 6
________________ जैन जाति महोदय. आये आचार्यश्रीने बडेही उच्चस्वर ओर मधुरध्वनि से धर्मदेशमा दी. श्रोताजनों पर धर्म का अच्छा असर हुवा। यथाशक्ति व्रत नियम किये तत्पश्चात् परिषदा विसर्जन हुई । मिस समय आचार्य हरिदत्तसूरि स्वस्ति नगरी के उद्यान में विराजमान थे उसी समय परिव्रजक लोहिताचार्य भी अपने शिष्य समुदायकैसाथ स्वस्ति नगरीके बहार ठेरे हुवे थे दोनोंके उपासकोके आपुसमें धर्मबाद होने लगा. वहांतक कि वह चर्चा राजा अदिनश,की रानसभामें भी होने लगी. पहले जमाना के राजाओं कों इन बातों का अच्छा शौख था. राना जैनधम्र्मोंपासक होनेपरभी किसी प्रकारका पक्षपात न करता हुवा न्यायपूर्वक एक सभा मुकरर कर ठीक टैमपर दोनों आचार्यों को आमन्त्रण किया. इसपर अपने अपने शिष्य समुदाय के परिवारसे दोनों आचार्य सभामें उपस्थित हुये राजाने दोनो आचार्यों को वडा ही आदर सत्कार के साथ आसन पर वि. राजने की विनंति करी. आचार्य हरिदत्तसूरि के शिष्योंने भूमि प्रमार्जन कर एक कामलीका आसन बीचा दीया राजाकी आज्ञा ले सूरिजी विराजमान हो गये इधर लोहित्यार्य भी मृगछाला बीछा के बैठ गये तदन्तर राजाको मध्यस्थ स्थानपर रख दोनों आचार्यों के आपुस में धर्मचर्चा होने लगी विशेषता यह थी की सभाका होल चकारबद्ध भरजाने परभी शास्त्रार्थ सुनने के प्यासे लोग बडे ही शान्तचित्तसे श्रवणकर रहे थे. लोहीताचार्य ने अपने धर्म की प्राचीनता के बारामे वेदोंका के प्रमाण दिआ और जैनधर्म के विषय में यह कहा कि जैनधर्म पार्श्वनाथजीसे चला है ईश्वरको मानने में इन्कार करते है। इसपर हरिदत्ताचार्य ने फरमाया कि जैनधर्म नूतन नहीं पर वेदोंसे भी प्राचीन है वेदोंमे भी जैनों के प्रथम तीर्थकर भग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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