Book Title: Oswal Porwal Aur Shreemal Jatiyo Ka Sachitra Prachin Itihas Author(s): Gyansundar Maharaj Publisher: Ratnaprabhakar GyanpushpamalaPage 56
________________ (४६) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. जैन धर्म को स्वीकार किया है आपने ही नहीं पर आप के दादानी ( जयसेन राजा ) भी परम्परा धर्म छोड जैनी बन गये पर आपके पिताजीने सत्य धर्म की सोध कर पुनः हमारा धर्म के अन्दर स्थिर हो उसका ही प्रचार किया है भलो आप को एप्ता ही करना था तो हम को वहां बुला के शास्त्रार्थ तो कराना था कि जिससे आप को ज्ञात हो नाता की कौनसा धम्म सत्य सदाचारी और प्राचीन है इत्यादि इसपर राजाने कहा कि मेरा दादाजीने और मेंने जो किया वह ठीक सोच समझ के ही कीया है आपके धर्म की सत्यता और सहाचारमें अच्छी तरहसे जानता हूं कि जहां बेहन बेठी और माता के साथ व्यभिचार करने में भी धर्म माना गया है रूतुबंती से भोग करना तो तीर्थयात्रा जीतना पुन्य माना गया है धीकार है एसे धर्म और एसे दुराचारके चलाने वालो को में तो एसे मिथ्या धर्म का नाम कानोमें सुनना में भी महान् पाप समझता हुं सरम है कि एसे अधर्म को धर्म मानकर भी शास्त्रार्थका मिथ्या गमंड रखते हो क्या पवित्र जैनधर्म के सामने व्यभिचारी धर्म शास्त्रार्थ तो क्यापर एक शब्द भी उच्चा रण करने को समर्थ हो सकता है अगर आप को एसा ही आग्रह हो तो हमारे पूज्य गुरुवर्य शाखार्थ करने को तरयार है। गुस्से में भरे हुवे वाममार्गि बोले कि देरी किस की है हमतो इसी वास्ते आये है यह सुनते हो राना अपने योग्य आदमियों को सरिजी के पास भेजे और शास्त्रार्थ के लिये आमन्त्रण कीया. आदमियोंने सूरिजी से सब हाल निवेदन कीया यह सुनते ही अपने शिष्य मण्डलसे सूरिजी महाराज राज सभा में पधार गये। नगर मे इस बात की खबर होते ही सभा एकदम चीकार बद्ध भरा गई। प्रारंभ में ही उच स्वर से शैव बोल उठे कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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