Book Title: Oswal Porwal Aur Shreemal Jatiyo Ka Sachitra Prachin Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 19
________________ आचार्य स्वयंप्रभमूरि. ( १७ ) यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयं भुषाः ।। यज्ञोस्य भुत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽबधः ॥ भावार्थ-ईश्वरने यज्ञ के लिये ही सृष्टिमे पशुओ को पैदा कीया है जो यज्ञ के अन्दर पशुओ कि बलि दी जाति है वह सब पशु योनिका दुःखोसे मुक्त हो सिधे ही स्वर्गमे चले माते है और यज्ञ करनेसे राना प्रनामे शान्ति रहती है. सूरिजीने कहा अरे मिथ्यावादीयों तुम स्वल्पसा स्वार्थ (मांस भक्षण) के लिये दुनियों को मिथ्या उपदेश दे दुर्गति के पात्र क्यों बनते हो अगर यज्ञमे बलिदान करनेसे ही स्वर्ग नाते है तो .. “निहतस्य पशोर्यज्ञे । स्वर्ग प्राप्तिर्यदीष्य ते। - स्वपिता यजमानेन । किन्तु तस्मान्न हन्यते ॥" भावार्थ-अगर स्वर्गमे पहुंचाने के हेतु हि पशुओंको यज्ञमें मारते हो तो तुमारे पिता बन्धु पुत्र स्त्रिको स्वर्ग क्यो नहीं पहुंचाते हों अथवा यजमान को बलि के नरिये स्वर्ग क्यों नहीं भेजते हो अरे पाखण्डियों अगर एसे ही स्वर्ग मीलती है तो फीर क्या तुमको स्वर्ग के सुख प्रीय नहीं है देखिये शान क्या कहता है. " यूपं कत्वा पशुन् हत्वा । कृत्वा रूधिर कर्दमम् । यद्येव गम्यते स्वर्गे । नरके केन गम्यते ॥" *बिचारा पशु उन निर्दय दैत्यों प्रति पुकार करते है कि " नाहं स्वर्ग फलोपभोग तुष्टितो नाभ्यार्थि तस्त्वंकाया, । संतुष्ठ स्तृण भक्षणेन सततं साधो न युक्त तव ॥ स्वर्ग यान्ति यदत्वया विनिहिता यज्ञे ध्रवं प्राणिनो। यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवै ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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