Book Title: Oswal Porwal Aur Shreemal Jatiyo Ka Sachitra Prachin Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala
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(१६)
जैन जाति महोदय.
अहिंसा सर्य जीवेषु, तत्वज्ञः परिभाषितम् ।। इदं हि मूल धर्मस्य, शेषस्तस्यैष विस्तरम् ॥१॥
हे नरेश ! इस आरापार संसार के अन्दर जीतने. तत्ववेत्ता अवतारिक पुरुष हो गये है उन सबोंने धर्मका लक्षण " अहिंसा परमो धर्मः " बतलाया है शेष सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य निस्पृहीता आदि उस मूलकी शाखा प्रतिशाखारुप विस्तार है फिर भी महाभारतमें श्री कृष्णचन्द्र ने भी युधिष्ठर से कहा है कि:
यो दद्यात् कांचनं मेरुः कृत्स्नां चैव वसुंधराः । एकस्य जीवितं दधात् न च तुल्य युधिष्ठिर ॥ हे धराधिप ! एक जीषके निषित दान के तुल्य कांचनका मेरु और संपूर्ण पृथ्वीका दान भी नहीं आसता है। हे राजन् ! जैसा अपना निवित अपने को प्रीय है वैसे ही सब नीव अपने जिषित को प्रीय समजते है पर मांस लोलुप कितने ही अज्ञानी पापात्माओंने बिचारे निरपराधि पशुओंका बलिदान देनेमे भी धम्ममान दुनियाको नरक के रहस्ते पर पहुंचा देने का पाखण्ड मचा रखा है यद्यपि कितनेक देशमे तो सत्य वक्ताओंके प्रभावशालि उपदेशसे दुनियोंमें ज्ञानका प्रकाश होनेसे वह निष्ठूर कम्म नष्ट हो गया है पर केइ केह देशमें अज्ञात लोग इस कुप्रथाके कीचडमे फैसे पडे है, यह सुनते ही वह निर्दय दैत्य मांस लुपी यज्ञाध्यक्षक बोल उठे कि महाराज ! यह जैन लोग नास्तिक है वेद और ईश्वर को नहीं मानते है दया दया पुकार के सनातन यज्ञ धर्मका निषेध करते फोरते है इनको क्या खबर है कि वेदोमें यज्ञ करना महान् धर्म और दुनियोंकी शान्ति बतलाइ है । देखिये शाखोमें क्या कहा है ?
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