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ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. मन्दिर-मूर्तियों नहीं बनाइ थी। जैसे जैन ज्ञातियोंके प्राचीन शिलालेखों के अभाव है वैसेही मैनेतर ज्ञातियोंकी दशा है, तात्पर्य यह है कि किसी ज्ञातियोंका प्राचीन-अर्वाचिनका आधार केवल शीलालेखपर ही नही होता है पर दूसरेभी अनेक साधन हुआ करते है कि जिसके जरिये निर्णय हो सके।
(३) ओशियों मन्दिरके शिलालेखके विषयमें-अव्वलतो वह शिलालेख खास महावीर मन्दिर बनाने का नहीं है पर किसी जिनदासादि श्रावकने महावीर मन्दिरमें रंगमण्डप बनाया जिस विषय का शिलालेख हैं । रंगमंडपसे मन्दिर बहुत प्राचीन है और मन्दिरमें जो महावीर प्रभु कि मूर्ति विराजमान है वह वही प्राचीन मूर्ति है कि जो देवीने गाय के दुद्ध और वेलुरेतिसे बनाइ और प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उनकी प्रतिष्टा करी थी दूसरा उस लेखमें ओसवाल बनानेका कोई जिक्र तक भी नहीं है अगर उस समय के आसपासमें श्रोसवाल बनाये होते तो जैसे पडिहार राजाओंकि बंसावलि ओर उनके गुण प्रशंसा लिखी है उसी माफिक ओसवाल बनानेवाले श्राचार्योंकि भी कीर्ति वगैरह अवश्य होती पर एसा नहीं वल्के प्रतिष्ठित आचार्यका नामतक भी नहीं है उस शिलालेखसे तो उलटा यह सिद्ध होता है कि उस समय अर्थात् वि. स. १० १३ में उस नगरका नाम श्रोशियों नहीं पर उपकेशपुर था और उपलदेव पँवारका राज नहीं पर सेंकडो वर्षोसे पडिहारोंका राज था. आगे हम ओशियोंका मन्दिर ओर शिलालेखकी तरफ हमारे पाठकोंके चित्तको आकर्षित करते है-पट्टावलियों वंसावलियोंसे या पुराणे चिन्हसे ज्ञात होता है कि यह उपकेशपुर इतना
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