________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १८ )
श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा.
आज विक्रम की पन्दरखी सदी से प्राचीन कोई शिलालेख नहीं मिलता है पर आज उनको अर्वाचीन मानने का साहस किसी ने भी नहीं किया है इसका कारण यह है कि जैसे आज प्राचीनता का रक्षण किया जाता है वैसा पूर्व जमाना मे नहीं था इतनाही नहीं बल्के पुरांणा मन्दिरों का स्मारक कार्य पुनः पुनः कराया जाता था उस समय प्राचीनता की बिलकूल गरज न रखते थे । एक जमाना एसा भी गुजर गया था कि मुसलमानों के राजत्व काल में बहुत से मन्दिर मूर्तियों तोड फोड दी गइ थी। उसमें भी प्राचीनता के चिन्ह शिलालेख व शील्पकला नष्ट हो गइ थी । जो कुच्छ रही थी वह स्मारक कार्य कराने मे लुप्त हो गई। इस हालत में प्राचीन शिलालेखादि चिन्ह न मिलने पर उस स्थान व ज्ञातियों को अर्वाचीन नहीं कह सकते है ।
कुच्छ समय के लिये मान लिया जाय कि घोसवाल ज्ञाति के प्राचीन शिलालेख न मिलने पर उस ज्ञाति को हम अर्वाचीन मानले पर यह तो निश्चय मानना पडेगा कि विक्रम कि दशवी सदी पहिले जैन श्वेताम्बर हजारो आचार्य और लाखों क्रोडो मनुष्य जैन धर्म पालते थे हजारों लाखों जैन मन्दिर थे. जैनाचार्य और जैन मन्दिर विशाल संख्या मे थे तव उनके उपासक विशाल क्षेत्र में होना स्वाभाबिक बात है पर आज हम शिलालेखों पर ही आधार रखे तो किसी भी जैनधर्म पालनेवाली ज्ञातियोंका शिलालेख नही मिलता है इसपर यह तो नहीं कहा जा सकता है कि जिस समय के शिलालेख नहीं मिले उस समय जैन धर्म पालनेवाली कोई भी ज्ञाति नहीं थी या किसीने जैन
For Private and Personal Use Only