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दूसरी शंका का समाधान.
(३३.) बडे राजा महाराजाओंने जो आदर सत्कार और अनेक खीताब जैन ज्ञातियों को दीया है व स्यात् ही अन्य ज्ञातियों के लिये दीया हो, न जाने इनका ही तो फल न हो कि वह ज्ञातियों ओसवालों कि इस आबादी इज्जत को सहन न कर वह आन्तरध्वनी निकाली हो कि ओसवालोंमें शूद्र सामिल है
ओसवाल ज्ञातिमें शूद्र वर्ण सामिल होते तो ब्राह्मणाग्रेश्वर संजभव भट्ट, भद्रबाहु, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र और बप्पभट्टी
आदि हजारों ब्राह्मण जैन धर्म स्वीकार कर इन ज्ञातियोंका आश्रय नहीं लेते और कुमरिल भट्ट तथा शंकराचार्य के समय कितनीक अज्ञात जैन जनोंने, जैन धर्म छोड शैव-वैष्णव धर्म स्वीकार कर लेने पर उनको शूद्र ज्ञातिमें सामिल न कर उच्च ज्ञातियोंमे मिलाली तो क्या उनको खबर नहीं थी कि जैन जातियों में शूद्र सामिल है ? मगर एसा नहीं था अर्थात् जैन जातियां पवित्र उच्च कुलसे बनी हुई है एसी मान्यता उन लोगों की भी थी.
अगर उस जमानामें जैनाचार्य शूद्र वर्ण को भी ओसवाल ज्ञातिमें मिला देते तो हमारे पडोसमें रहनेवाले शैव-वैष्णव धर्म पालनेवाले उच्च वर्णके लोग व वडे बडे राजा महाराजा ओसवाल ज्ञातिके साथ जो उच्च व्यवहार रखते थे और रख रहे हैं वह किसी प्रकार से नहीं रखते ? जैसे अधूनिक समय अंग्रेजोंको राजत्व काल में शूद्रोंके साथ पहिला जमाने की जीतनी घृणा नहीं रखी जाति है तथापि शूद्र वर्ण को सामिल करनेसे इसाइयोंका धर्म प्रचार वहाँ
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