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जितेन्द्र बी. शाह
Nirgrantha
की सिंहसूरी (सिंहशूर) की टीका (प्रायः ईस्वी० ६७५) में उपलब्ध है। संक्षेप में हम कह सकते है कि जैन परंपरा में नयों के वर्गीकरण की विभिन्न शैलियां रही हैं। (१) वर्गीकरण की संक्षिप्त शैली:- इसके अंतर्गत सामान्यरूप से द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक, मिश्चय-व्यवहार, व्युच्छित्तिअव्युच्छित्ति आदि रूपों में नयों के दो विभाग किए गए हैं।
या शैली:- इसमें सामान्य और विशेष को ही आधार बनाकर नयों का चतुर्विध, पचावध, षड्विध, सप्तविध आदि भेद किए गए हैं। (३) वर्गीकरण की विस्तृत शैली:- यह शैली वर्तमान में प्रचलित नहीं है, किन्तु प्राचीन काल में यह शैली अस्तित्व
में रही होगी। क्योंकि सप्तशतार-नयचक्र होने का उल्लेख भी प्राप्त हुआ है जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर नयों का विभाजन सात सौ रूपों में भी किया जाता था। किन्तु वर्तमान
युग में नयों के वर्गीकरण के संक्षिप्त और मध्यम रूप ही प्रचलित हैं। आगमकाल में नय विभाजन :
प्राचीन अर्धमागधी आगम साहित्य में सर्वप्रथम नयों की चर्चा व्याख्याप्रज्ञप्ति अपरनाम भगवतीसूत्र (ईस्वी २-३ शती) में देखने को मिलती है। इसमें सामान्य रूप से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तथा निश्चय और व्यवहार नयों की चर्चा हुई है । द्रव्यार्थिक नय वह दृष्टिकोण है जो सत्ता के शाश्वत पक्ष को, दूसरे शब्दों में द्रव्य को ही अपना विषय बनाता है। जब कि पर्यायार्थिक नय सत्ता या द्रव्य के परिवर्तनशील पक्ष को, जिसे परंपरागत शैली में पर्याय कहा जाता है, अपना विषय बनाता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में इनके लिए अव्युच्छित्ति-नय और व्युच्छित्ति-नय शब्द का भी प्रयोग किया गया है। जो द्रव्यार्थिक नय है, उसे ही अव्युच्छित्ति-नय कहा गया है । अव्युच्छित्ति-नय का विषय सत्ता का सामान्य और शाश्वत पक्ष होता है। सत्ता के पर्यायार्थिक पक्ष को या परिवर्तनशील पक्ष को व्युच्छित्ति-नय कहा गया है, एवं एक ही वस्तु की व्याख्या इन दो दृष्टिकोणों के आधार पर दो प्रकार से की गई है। जैसे- द्रव्यार्थिक दृष्टि या अव्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा से वस्तु को शाश्वत कहा जाता है जबकि पर्यायार्थिक दृष्टि या व्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा से वस्तु को अशाश्वत या अनित्य माना जाता है। इन्हीं दो दृष्टिकोणों के आधार पर आगे चलकर सामान्य दृष्टिकोण और विशेष दृष्टिकोण की चर्चा हुई है। सन्मतिप्रकरण में अभेदगामी दृष्टिकोण को सामान्य और भेदगामी दृष्टिकोण को विशेष कहा है" । वस्तु का सामान्य पक्ष सामान्यतया नित्य होता है और विशेष पक्ष अनित्य होता है। इसलिए द्रव्यार्थिक दृष्टि को सामान्य या अभेदगामी दृष्टि भी कहते हैं। इसी प्रकार पर्यायार्थिक दृष्टि को विशेष या भेदगामी दृष्टि भी कहा जा सकता है ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति में नयों का एक वर्गीकरण निश्चय और व्यवहार के रूप में भी पाया जाता है। निश्चय नय वस्तु के पारमार्थिक या यथार्थ स्वरूप को या दूसरे शब्दों में कहें तो वस्तु के स्वभाव पक्ष को अपना विषय बनाता है। इसका एक उदाहरण उसी सूत्र में इस प्रकार मिलता है - जब भगवान महावीर से यह पूछा गया कि - "हे भगवन् ! फणित् (प्रवाही गुड) का स्वाद कैसा होता है ?" तो उन्होंने उत्तर दिया- “हे गौतम ! व्यवहारनय से तो उसे मीठा कहा जाता है किन्तु निश्चयनय से तो वह पांचों ही प्रकार के स्वादों से युक्त है।"
इसके अतिरिक्त प्राचीनकाल में ज्ञाननय और क्रियानय तथा शब्दनय और अर्थनय ऐसे भी द्विविध वर्गीकरण प्राप्त होते हैं। जो नय ज्ञान को प्रमुखता देता है वह ज्ञाननय है और जो नय क्रिया पर बल देता है वह क्रियानय है। उन्हें हम ज्ञानमार्गी जीवनदृष्टि और क्रियामार्गी जीवनदृष्टि कहते है। इसी प्रकार जो दृष्टिकोण शब्दग्राही होता है
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