Book Title: Nirgrantha-1
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 306
________________ श्री पार्श्वनाग विरचित... आचार्यों में से एक हो सकते हैं। यदि वे प्रथम जिनेश्वरसूरि हों तो रचना का समय ईस्वी० ११वीं शती पूर्वार्ध कहा जा सकता है । इस आत्मानुशासन की भाषा प्राकृत है और ४० पद्यों में बद्ध किया गया है । यह कृति अप्रकाशित होने से इसकी पार्श्वनाग के आत्मानुशासन के साथ तुलना करना सम्भव नहीं । Vol. 1-1995 प्रस्तुत लेख में अनुलक्षित आत्मानुशासन के उपरोक्त ७६ वें पद्य में कर्त्ता ने अपना नाम पार्श्वनाग बताया है, यदि वह मुनि रहे हों तो उनके गुरु परम्परा, गण, कुल या गच्छ आदि के विषय में कोई भी निर्देश नहीं मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा के ईस्वी० नवम- दशम शतक में हुए सैद्धान्तिक यक्षदेवसूरि के शिष्य का नाम पार्श्व है। उन्होंने वि० सं० ९६१ अर्थात् ई० सं० ९०५ में वंदित्तुसूत्र की वृत्ति रची है; परन्तु समय स्थिति देखते हुए दोनों भिन्न प्रतीत होते हैं। एक अन्य पार्श्वनाग का उल्लेख हमें जम्बू कवि के जिनशतक पर विरचित शाम्ब मुनि की पञ्जिका में इस प्रकार मिलता है : ख्यातो 'भट्टिक' देश संधिषु सदा (5) भूत पार्श्वनागाभिदः (धः) । श्री (श्रावस्तस्य सुतेच (न) मल्हन इति ख्यातिं गतः सर्वतः । तत्पुत्रेण व (च) दुग्गर्गकेण सुधिया प्रोत्साहिते नादराब्री (च्छ्री) नागेन्द्र कुलोद्भवेन मुनिना सांबेन वृत्तिः कृताः ॥८॥ ३७ शाम्ब मुनि ने यह पञ्जिका वि० सं० १०२५ अर्थात् ईस्वी० ९६९ में पूर्ण की है और वह पार्श्वनाग के पौत्र के हितार्थ रची गई है। प्रस्तुत आत्मानुशासन के कर्ता पार्श्वनाग के समय से उनका समय प्रायः तीन दशक पूर्व का है अतः वे भी आत्मानुशासन के कर्ता नहीं हो सकते। कुछ 'हस्तप्रतों में रचनावर्ष निर्देशक गणित - शब्द 'द्वयग्रल' के बदले 'द्व्यङ्गुल' भी मिलता है। यदि उसको स्वीकारा जाय तो रचना समय संवत् १०५२ प्राप्त होता है लेकिन प्राचीनतम एवं ताडपत्रीय पाण्डुलिपि में तो 'इचग्रल' ही पाठ मिलता है, इसलिए रचना संवत् १०४२ (ईस्वी ९८६) को ही मानना विशेष उपयुक्त होगा । I कृति के आधार पर कर्ता के सम्प्रदाय का निर्णय करना कठिन कार्य है। मंगलाचरण को देखने पर दिगम्बराचार्य की कृति का आभास होता है । परन्तु पार्श्वनाग या नागान्त नाम के कोई दिगम्बर कर्त्ता हुए हों ऐसा ज्ञात नहीं है । दूसरी ओर श्वेताम्बर परम्परा में नागान्त अभिधान वाले आचार्य एवं मुनि मिल जाते है । अन्तरंग साक्ष्य के आधार पर उसमें कहीं भी सम्प्रदाय निर्देशक संकेत का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है तथा इस कृति की एक भी प्रति दिगम्बर भण्डारों से प्राप्त नहीं होती है; दूसरी ओर श्वेताम्बर आम्नाय के अनेक संग्रहों के विपुल संख्या में उसकी प्रतियाँ मिल जाती है; अतः सम्भव है कि कर्ता श्वेताम्बर परम्परा के ही रहे हों। अब हम कुछ ऐसे प्रमाण प्रस्तुत करेंगे जिससे उपरोक्त सम्भावना की पुष्टि हो जाती है। (१) चार गति रूप संसार में अल्पमात्र सुख नहीं है, ऐसे भाव को प्रदर्शित करते हुए २७वें पद्य में चार गति का क्रम इस प्रकार रखा गया है : Jain Education International तिर्यक्त्वे मनुष्यत्वे, नारक भावे तथा च देवत्वे ।....॥२७॥ यहाँ नारक एवं देव गति का क्रम श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की परम्परा का अनुसरण करते हुए रखा गया है। जब कि दिगम्बरीय परम्परा के तत्त्वार्थसूत्र में प्रथम देव गति के बाद नारक गति का उल्लेख करता हुआ सूत्र प्राप्त होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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