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जितेन्द्र बी० शाह
Nirgrantha
तारुण्ये नलिनीदल - संस्थितजलबिन्दुगत्वरे दृष्टे ।
वाताहतदीपशिखातरलतरे जीवितव्ये च ।।३५।। इस प्रकार साधारण शैली में विरचित प्रस्तुत कृति आत्मा को समभाव में स्थिर रखने के लिए एवं अध्यात्म का उपदेश देने वाली सुन्दर कृति है। दो भिन्न स्थान पर प्रकाशित इस कृति के पाठ में कहीं-कहीं अन्तर है। प्राचीनतम प्रतियों का मिलान करके इसका विशेष विश्वसनीय पाठ हम तैयार कर रहे हैं, वह यथा समय प्रकाशित होगा।
संदर्भसूची:
१. आत्मानुशासन, आचार्य गुणभद्र, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर वि० सं० २०१८ (ई० स० १९६८). २. आत्मानुशासन, पार्श्वनागगणि विरचित, श्री सत्यविजय जैन ग्रन्थमाला नं० ११, अहमदाबाद १९२८. ३. अप्रकाशित। ४. मोहनलाल दलीचन्द देशाई, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, जैन श्वेताम्बर कान्फरन्स, मुम्बई १९३३, पृ० २८२. 4. Descriptive Catalogue of Government Collections of Manuscripts, Jain Literature and Philosophy,
Vol. XIX, pt. 1, Svetambar Works, ed. Hiralal Rasiklal Kapadia, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona 1957, p. 230. ६. Catalogue of Palm Leaf Manuscripts in the Santinatha Jain Bhandara Cambay, pt. 1, Gaekwad's
Oriental Series, pt. 1, No. 135, Baroda 1961, p. 138. ७. नारकदेवानामुपपात:- तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भाषानुवाद, पं० खूबचंदजी, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास १९३२, २/३५. ८. देवनारकाणामुपपादः २/३५ तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वामि, सं० पं० ए. शान्तिराज शास्त्री, Government Oriental Library, मैसूर १९४४.
प्रस्तुत लेख तैयार करने की प्रेरणा प्रा० मधुसूदन ढांकी से मिली और लेख को आद्यन्त देखकर उन्होंने योग्य सूचन दिए, जिसके । लिये मैं उनका आभारी हूँ।
श्री पार्श्वनागविरचितम्
॥ आत्मानुशासनम् ॥ सकलत्रिभुवनतिलकं, प्रथमं देवं प्रणम्य सर्वज्ञम् । आत्मानुशासनमहं, स्वपरहिताय प्रवक्ष्यामि ॥१॥ समविषमभित्तियोगे, विविधोपद्रवयुतेऽतिबीभत्से । अहिवृश्चिकगोधेरक-कृकलासगृहोलिकाकीर्णे ॥२॥ कारावेश्मनिवासो, भूशयनं जनविमईसङ्कोचः। साधिक्षेपालापाः, शीतातपवातसन्तापाः ॥३॥ मूत्रपुरीषनिरोधः, क्षुत्तृहपीडाविनिद्रताभीतिः । अर्थक्षतिरन्यदपि च, चित्तवपुः क्लेशकुत्प्रचुरम् ॥४॥
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