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Vol. 1-1995
कृष्णपिंगच्छ का संक्षिप्त...
और हम्मीरमहाकाव्य की प्रशस्तियों में भी आ चुके हैं। दोनों ही साक्ष्यों में इन नामों की प्रायः पुनरावृत्ति होती रही है । इस आधार पर कहा जा सकता है कि कृष्णर्षिगच्छ की इस शाखा में पट्टधर आचार्यों को जयसिंहसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि और नयचन्द्रसूरि ये तीन नाम प्रायः प्राप्त होते रहे। उक्त तर्क के आधार पर वि० सं० १२८७ के प्रतिमालेख में उल्लिखित नयचन्द्रसूरि को निर्ग्रन्थचूडामणि जयसिंहसूरि ( जिन्होंने वि० सं० १३०१ में मरुभूमि में भीषण ताप के समय मंत्रशक् द्वारा भूमि से जल निकाल कर श्रीसंघ की प्राणरक्षा की थी) के गुरु ( नयचन्द्रसूरि ? ) से समीकृत किया जा सकता है । किन्तु इनके शिष्य प्रसन्नचन्द्रसूरि और वि० सं० १३७९ में प्रतिमाप्रतिष्ठापक प्रसन्नचन्द्रसूरि को अभिन्न मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि दोनों आचार्यों की कालावधि में पर्याप्त अन्तर है । वि० सं० १४१७ के प्रतिमालेख उल्लिखित जयसिंहसूर, कुमारपालचरित और न्यायतात्पर्यदीपिका ( रचनाकाल वि० सं० १४२२ / ई० स० १३६६ ) रचनाकार जयसिंहरि से निश्चय ही अभिन्न हैं।
वि० सं० १४८३ से वि० सं० १५०५ के मध्य प्रतिमा प्रतिष्ठापक नयचन्द्रसूरि और हम्मीरमहाकाव्य ( रचनाकाल वि० सं० १४४४ / ई० स० १३८८) और रम्भामंजरीनाटिका के कर्त्ता नयचन्द्रसूरि को उनके कालावधि के आधार . पर अलग-अगल आचार्य माना जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि वि० सं० १४४४ और वि० सं० १४८३ मध्य जयसिंहसूर और प्रसन्नचन्द्रसूरि ये दो आचार्य हुए, परन्तु उनके बारे में हमें कोई सूचना प्राप्त नहीं होती ।
अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित लक्ष्मीसागरसूरि ( वि० सं० १५२४) और जयशेखरसूरि (वि० सं० १५८४) के बारे में हमें अन्यत्र कोई सूचना प्राप्त नहीं होती ।
इस प्रकार साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा निर्मित तालिकाओं के परस्पर समायोजन से कृष्णर्षिगच्छीय मुनिजनों के आचार्य परम्परा की एक विस्तृत तालिका बनती है, जो इस प्रकार है :
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