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अनुभव है कि विना साधुओंके हजारों जैन अन्यधर्मवालों के सतत परिचय होनेसे उनकेही अनुयायी होते जाते हैं. अपने महान आचार्योने जिन्हे प्रतिबोधकर जैन धर्ममें दृढ कियाथा आज हम उन्हें मिथ्यात्वमें पडते देखकरभी कुछ ख्याल न करें, या परीषहोंसे डरके मारे अपनी कमजोरी बतलाकर गुजरातमें ही पडे रहें, यह हमें शोभनीय नहीं है. महाशयो ! अपने जैन श्रावकोंकी संख्या दिनपर दिन घटती जाती है उसका दोष अपनेही ऊपर है ! एक समय ऐसाथा कि एक देशसे दुसरे देशमें जाना बडा ही मुश्किल कामथा. अन्य धर्मवालोंकी तर्फसे राजाओंकी तर्फसे चोर और लुटेरोंकी तर्फसे, साधुओंको विहारमें बड़ी मुसीबतें पडती थी ! ऐसे विकट समयमेंभी अपने पूर्वाचार्योंने दूरदूर देशोंमें जाकर, लोकोंको प्रतिबोधकर जैनधर्मी बनायाथा. आजतो प्रतापी नामदार गवर्मेन्ट सरकार अंगरेज बहादुरके राज्यमें साधुओंको बिहारके साधन ऐसे सुलभ हैं कि, जी चाहे वहां बेधडक विचरते फिरें ! किसी प्रकारका भय नहीं है ! ऐसे शासनमें अगर चाहो तो उनसे भी अधिक कार्य कर सक्ते हो. लेकिन, अफसोसके साथ कहना पडता है कि, उन्नति करनी तो दूर रही. हां अवनतिका रस्ता तो पकडाही हुआ है ! जरा पालीतानाकी तर्फ ख्याल करो. तीर्थकी आड लेकर कितने साधु साध्वी दरसाल वहांके वहांही समय गुजारते हैं ! कभी बहुता जोर मारा तो भावनगर, और उससे अधिक अनुग्रह किया तो अहमदाबाद, बस इधर उधर फिर फिरा फिर पालीतानाका पालीताना ! श्वसुर गृहसे पितृगृह और पितृगृहसे श्वसुरगृह ज्यादा जोर मारा कभी मातुल