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“ तृतीयाधिवेशन."
ता. १४ जून १९१२ शुक्रवार प्रातःकाल आठ बजे सभापतिजी वा अन्य मुनिमंडलके प्रेक्षक गण सहित उपस्थित हो जानेपर सभापतिजीकी आज्ञानुसार मंगलाचरणपूर्वक तृतीय अधिवेशनका कार्य प्रारंभ हुआ.
प्रस्ताव इक्कीसवां.
(२१) ॐ साधुओके या श्रावकोंके भीतरी झगडोमें अपने साधुओंको शामिल न होना चाहिये. कोई धार्मिक कारणसे शामिल होनेकी आवश्यकता होतो आचार्य महाराजकी आज्ञा मंगवाकर उसके मुताबिक वर्ताव करना.
यह प्रस्ताव प्रवर्तक श्री कांतिविजयजी महाराजने पेश किया और मुनिश्री मानविजयजी तथा मुनिश्री उत्तमविजयजीने अनुमोदन किया. बाद सर्वकी सम्मातिसे यह नियम पास हुआ.
प्रवर्तकजी महाराजने प्रस्ताव पेश करते समय कहाथा कि, इस नियममें विशेष विवेचनकी कोई जरूरत नहीं मालूम होती ! यह स्पष्टही है कि, साधुका या गृहस्थका चाहे जिसका टंटा हो उसमें पडनेसे अपने पठन पाठन ज्ञान ध्यानमें अवश्य नुकसान होगा ! दूसरा ऐसे झगड़ोमें पडनेसे पक्षपाती या अविश्वासु होनेका संभव है ! अतः जहां ऐसे ऐसे टंटे झगडेका