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पंक्ति के अन्तिम दो अक्षरों से ५८ वें पत्र की दूसरी पृष्ठि की आठवीं पंक्ति (अंत्य पांच अक्षर के अतिरिक्त) तक का ग्रन्थसंदर्भ आचारांगसूत्र के दूसरे अध्ययन के प्रथम उद्देश की टीका का .. है। अर्थात् प्रस्तुत, मुद्रित ग्रन्थ के ७३ वें पृष्ठ की १६ वीं पंक्ति में आये हुए 'छलिओ' शब्द के 'छ' के बाद से ९६ वें पृष्ठ की १६ वीं पंक्ति में आये हुए 'पडिलाहिया' शब्द में आये हुए 'ला' तक का मूलशुद्धिीका का ग्रन्थसंदर्भ प्रस्तुत 'E' प्रति में नहीं है किन्तु उसके बदले आचारांगसूत्रटीका का सूचित पाठ है। इस प्रति की पत्रसंख्या २५२ है। प्रथम पत्र की प्रथम और अन्तिम पत्र की दूसरी पृष्ठि कारी है । २५२ वें पत्र को प्रथम पृष्ठि की चौथी पंक्ति में समग्र ग्रन्थ पूर्ण होता है। प्रत्येक पत्र की प्रतीक पृष्ठि में १५ पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्ति में कम से कम ५२ और अधिक से अधिक ५८ अक्षर हैं। किसी किसी में ४९ अक्षर भी मिलते हैं। प्रत्येक पृष्ठि के मध्य में अलिखित कोरा भाग रखकर सुन्दर शोभन बनाया हुआ है। इसकी लिपि सुन्दरतम है और स्थिति भी अच्छी है। इसकी लम्बाई चौडाई १०॥.२४४। इंच प्रमाण है । प्रति के लेखक की पुष्पिका नहीं है । अनुमानतः इसका लेखनसमय विक्रम की १७ वीं सदी का पूर्वार्द्ध होना चाहिए । इस प्रति को लिखाने के कितनेक समय के बाद लालशाही से लिखी हुई एक छोटी सी पुष्पिका भी इसमें है और वह इस प्रकार है-“साह श्री वच्छासुत साह सहस्रकिरणेन पुस्तकमिदं गृहीतं सुतवर्द्धमान[-]शांतिदासपरिपालनार्थ" । इस पुष्पिका पर से यह मालूम होता है कि सहस्रकिरण नामके श्रेष्ठी ने अपने ग्रन्थभण्डार के लिए यह प्रति (?)मूल्य से खरिदी होगी। इस श्रेष्ठी ने स्वयं ग्रन्थ लिखाकर और दूसरी जगह से ग्रन्थ प्राप्त कर एक ग्रन्थसंग्रह किया होगा क्योंकि इस श्रेष्ठी द्वारा लिखाई हुई और प्राप्त कि हुई प्रतियों के अन्त में लिखाई हुई ऐसी छोटी२ पुष्पिका वाली अनेक पोथियां मेरे देखने में आई हैं। इस श्रेष्ठी द्वारा लिखाये हुए नन्दीसूत्र का तो हमने उपयोग भी किया है, देखिये श्री महावीर जैन विद्यालय संचालित आगम प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित "नंदिसुत्तं अणुओगद्दाराइं च' ग्रन्थ का सम्पादकीय का पृ० २ । 'E' संज्ञक प्रति (मूलशुद्धिप्रकरण-मूल) -
जैसा कि प्रारंभ में बताया है, यह छोटी छोटी रचना के संग्रह वाली ताडपत्रीय प्रति पाटन के किस ज्ञानभण्डार की थी यह अब मेरे स्मरण में नहीं है। इस प्रतिका उपयोग आज से २४ वर्ष पूर्व किया था।
'उपरोक्त प्रतियों में से c और D संज्ञक प्रति अति अशुद्ध है। फिर भी सम्पादन कार्य में जिन जिन स्थानों में A और B संज्ञक प्रतिओं के पाठ शंकित थे वहाँ इन दो प्रतियों का उपयोग हुआ है। और जहाँ जहाँ A. B संज्ञक प्रतियों के पाठ नष्ट हो गये हैं वहाँ वहाँ इन दो प्रतियों ने उसे पूरा करने में सहयोग दिया है, (देखो चतुर्थ पृष्ठ की ११ वीं और ३२ वें पृष्ठ की आठवीं टिप्पनी)। यद्यपि ये दो प्रतियाँ (c.D) अर्वाचीन और अशुद्धत्तर है फिर भी सम्पादनकार्य में महत्त्व की सिद्ध हुई है। ये दो प्रतियां (c.D) विक्रम की २० वीं सदी में लिखाई हुई होने पर भी इसमें कतिपय स्थानों में 'थथथथ' और 'छछछछ' जैसे अर्थशून्य अक्षरों का निष्कारण लेखन हुआ है । इससे यह निश्चित .कहा जा सकता है कि यह प्रति ताडपत्रीय परम्परा की है । ताडपत्रीय प्रतियों के पत्र में जहाँ जहाँ दरारे पड़ी हो, अथवा लिखते समय अक्षरों के बिगड़ने की
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