Book Title: Mulshuddhiprakarana
Author(s): Pradyumnasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 15
________________ समाप्ति के बाद समस्त ग्रन्थगत कथाओं की सूचि दी है। वह ३८४ ३ पत्र की दूसरी पृष्ठि में पूर्ण होती है। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि में १३ पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में कम से कम ३८ और अधिक से अधिक ४८ अक्षर हैं। स्थिति अच्छी है और लिपि सुवाच्य है । इसकी लम्बाई चौड़ाई १०.१४५ इंच प्रमाण है। अन्त में लेखक ने मात्र लेखनस्थल और लेखनसमय ही दिया है। वह इस प्रकार है"अहम्मदावादनगरे सं. १९४८ भादरवा शुदि ११ ॥" । D संज्ञक पति सेठ श्री डोसाभाई अभेचन्द जैनसंघ (भावनगर) के भण्डार की यह प्रति भी पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्री जिनविजयजी ने मुझे 'C' संज्ञक प्रति के ही साथ उपयोग करने के लिए दी है । इसके पत्र २५९ है। २५८ वें पत्र में मूलशुद्धिप्रकरणटीका पूर्ण होती है । २५९वें पत्र में समग्रग्रन्थगत कथाओं की सूची दी है। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि में १५ पंक्तियाँ हैं। कम से कम ४० और अधिक से अधिक ७० अक्षरों वाली एक पंक्ति है । स्थिति अच्छि और लिपि सुवाच्य है। इसकी लम्बाई चौड़ाई १०.४॥ इंच है। अन्त में लेखक की पुष्पिका आदि कुछ भी नहीं है । अनुमानतः इसका लेखनसमय वि० २० वाँ शतक कहा जा सकता है। E संज्ञक प्रति (मूलशुद्धिटीका) ___ श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर (अहमदाबाद) में स्थित अनेक हस्तलिखित ग्रन्थसंग्रहों में से पूज्यपाद आगमप्रभाकरजी मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी महाराज के विशाल ग्रन्थसंग्रह की यह प्रति है। और यह कागज पर लिखी हुई है। यह प्रति आज से२० वर्ष पहले पू० पा. मु. श्री पुण्यविजयजी महाराजको मिली थी। उस समय प्रस्तुत ग्रन्थ का संशोधन कार्य पूरा हो गया था फिर भी उसी समय ही इस प्रति को उनके पास से लेकर पाठभेदादि के अनेक स्थानों को मिलाते समय निश्चि किया कि यह प्रति तो अशुद्ध है ही फिर भी यह 'C' और 'D' संज्ञक प्रति के प्राचीन कुल की है। इसी वजह से इस प्रतिका सम्पूर्ण उपयोग नहीं किया । मूलशुद्धियीकाकार आ० श्री देवचन्द्रसूरिजी की प्रशस्ति में किसी किसी स्थान पर 'C' और 'D' संज्ञक प्रति में अक्षरों के स्थान खाली रखे हुए हैं, वे' सब स्थान इस प्रति में सम्पूर्ण हैं। इस दृष्टि से यह प्रति उपयोगी हो गई है। A और B संज्ञक प्रति. में तो प्रशस्ति अपूर्ण ही मिलती है । इस प्रति में टीकाकार की प्रशस्ति को किसी विद्वान ने संशोधित की है। यहाँ प्रशस्ति के सातवें पद्य में [C और D प्रति में] कतिपय खाली रखे हुए अक्षरों के स्थान में "गुणसेमसूरिः' लिखा हुआ था । उसको सुधारकर किसी ने 'गुणसोमसूरिः' किया है। जबकि वस्तुतः वहाँ 'गुणसेनसूरिः' होना चाहिए, कारण कि आ० श्री देवचन्द्रसूरिरचित प्राकृतभाषानिबद्ध 'संतिनाहचरियं' शान्तिनाथचरितम् (अप्रकाशित) की ग्रन्थकारकृत प्रशस्ति में 'गुणसेणसूरि'नाम मिलता है। इससे स्पष्ट मालूम होता है कि इस प्रशस्ति के संशोधक ने गहरी चिकित्सा नहीं की है, ऐसा कह सकते हैं । प्रस्तुत प्रशस्ति के पाठ के अतिरिक्त समग्र ग्रन्थ में किसी ने कुछ भी संशोधन नहीं किया है। इस प्रति के लेखक ने जिस प्रति पर से नकल की है उस प्रति में, इस प्रति के बारह पत्र जितने पाठवाले पत्रों के बदले आ० श्री शीलांकसूरिरचित आचारांगसूत्रटीका की प्रति के पत्रों ने स्थान पा लिया होगा, इससे इस प्रति के ४६ वें पत्र की दूसरी पृष्ठि की ११ वीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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