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१०.१ प्राणमुद्रा : शरीर के दस वायुमें से पाँच वायु मुख्य है जिसे पंचप्राणतत्त्व कहते हैं । इन पाँच वायुओं के नाम हैं - प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान वायु । इन पाँचो वायुओं को शरीर में व्यवस्थित रखने के लिए पाँच मुद्राएँ हैं । इन पाँचों वायु में से भी प्राण और अपान वायु सब से महत्त्वपूर्ण हैं । प्राण और अपान सम होने से योग साध्य होता है । योग और प्राणायाम के प्रयोगो से प्राण और अपान सम बनते हैं, पर प्राण और अपान दोनों मुद्रा करने से सहज रूप से योग साध्य होता है । अंगूठे के अग्रभाग पर कनिष्ठिका के अग्रभाग मिलाकर, कनिष्ठिका के नाखून पर अनामिका का अग्रभाग रखकर, शेष तर्जनी और मध्यमा सीधी रखकर प्राणमुद्रा बनती है। यही मुद्रा करने का दूसरा तरीका : अनामिका और कनिष्ठिका के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए शेष अंगुलियाँ (तर्जनी और मध्यमा) सीधी रखते हुए प्राणमुद्रा बनती है। प्राणवायु मुख्यतया नासिका में, मुख में, हृदय में और नाभि के मध्यभाग में होता हैं। लाभ : प्राणमुद्रा से प्राणशक्ति का विकास होता है । मेरुदंड सीधा रखते हुए प्राणमुद्रा करने से प्राणऊर्जा सक्रिय बनकर उर्ध्वमुखी बनती है, जिससे इन्द्रिय, मन और भावों मे सूक्ष्म परिवर्तन होता है और व्यक्ति की चेतना उर्ध्वगामी होती है । पृथ्वी, जल और अग्नितत्त्व का संयोजन इस मुद्रा से होने से प्राण और रक्त की सभी प्रक्रिया के अवरोध दूर होते हैं।
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